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________________ सातवाँ अधिकार-१६६ करै है। जैसे केई जीव दयाधर्मको मुख्य करि पूजा प्रभावनादि कार्यको उथाप है, केई पूजा प्रभावनादि धर्मको मुख्यकरि हिंसादिक का भय न राखै है, केई तपकी मुख्यताकरि आर्त्त ध्यानादिकरिके भी उपवासादि करै वा आपको तपस्वी मानि निःशंक क्रोधादि करै, केई दानकी मुख्यताकरि बहुत पाप करिके भी धन उपजाय दान दे है, केई आरम्भ-त्यागकी मुख्यताकरि याचना आदि करै है।' इत्यादि प्रकार करि कोई धर्मको मुख्यकरि अन्य धर्मको न गिनै है वा वाकै आसरै पाप आचरै है। सा जैसे अविवेकी व्यापारी कोई व्यापारका नफेके अर्थि अन्य प्रकारकरि बहुत टोटा पाड़े तैसे यह कार्य भया। चाहेए तो ऐसे, जैसे व्यापारीका प्रयोजन नफा है, सर्व विचारकरि जैसे नफा घना होय तैसे करै। तैसे ज्ञानीका प्रयोजन वीतरागभाव है। सब विचारकरि जैसे वीतरागभाव घना होय तैसे करै। जानै मूलधर्म वीतरागभाव है। याही प्रकार अविवेकी जीव अन्यथा धर्म अंगीकार कर है, तिनकै तो सम्यक्वारित्रका आभास भी न होय। बहुरि केई जीव अणुव्रत महाव्रतादि रूप यथार्थ आचरण करै हैं। बहुरि आचरणके अनुसार ही परिणाम हैं। कोई माया लोभादिकका अभिप्राय नाहीं है। इनिको धर्म जानि मोक्षके अर्थि इनिका साधन करै हैं। कोई स्वर्गादिक भोगनि की भी इच्छा न राखै है परन्तु तत्त्वज्ञान पहलै न भया, ताः आप तो जानै मैं मोक्षका साधन करूं हूँ अर मोक्षका साधन जो है ताको जाने भी नाहीं । केवल स्वर्गादिकहीका साथन करै। सो मिश्रीको अमृत जानि भखे अमृतका गुण तो न होय। आपकी प्रतीतिके अनुसार फल होता नाहीं। फल जैसा साधन कर, तैसा ही लागै है। शास्त्रविषै ऐसा कह्या है- चारित्रवि 'सम्यक्' पद है, सो अज्ञानपूर्वक आचरणकी निवृत्ति के अर्थि है । तातै पहलै तत्त्वज्ञान होय, तहाँ पीछे चारित्र होय सो सम्यक्धारित्र नाम पावै है। जैसे कोई खेतीवाला बीज तो बोवै नाही अर अन्य साधन करै तो अन्नप्राप्ति कैसे होय, घास फूस ही होय। तैसे अज्ञानी तत्त्वज्ञानका तो अभ्यास करै नाही अर अन्य साधन करै तो मोक्षप्राप्ति कैसे होय, देवपदादिक ही होय । तहाँ केई जीव तो ऐसे हैं, तत्त्वादिकका नीके नाम भी न जाने केवल व्रतादिकविषै ही प्रवर्ते हैं। केई जीव ऐसे हैं, पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञानका अयथार्थ साधनकरि व्रतादि विष प्रवर्ते हैं। सो यद्यपि व्रतादिक यथार्थ आचरै तथापि यथार्थ श्रद्धान ज्ञान बिना सर्व आचरण मिथ्याचारित्र ही है। सोई समयसारका कलशाविषै कह्या है क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिश्यन्तां च परे महायततपोभारेण भग्नाश्चिरम्। साक्षान्मोक्षमिदं निरामयपद संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि।। - निर्जराधिकार ।।१४२।। ५. यहाँ खरड़ा प्रति में अन्य कुछ और लिखने के लिए संकेत किया है। यह संकेत निम्न प्रकार है : "इहाँ स्नानादि शौच धर्म का कथन तथा लौकिक कार्य आए धर्म छोड़ि तहाँ लगि जाय है, तिनिका कधन लिखना है, किन्तु पं. जी लिख नहीं पाये।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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