SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माक्षमार्ग प्रकाशक-१६८ तैसे प्रतिज्ञाकरि विषय प्रवृत्ति दि अंतरंग आसक्तता बधती गई। प्रतिज्ञा पूरी होते ही अत्यंत विषयप्रवृत्ति होने लागी। सो प्रतिज्ञाका कालविषै विषयवसना मिटी नाहीं। आगे पीछे ताकी एवज अधिक राग किया, तो फल तो रागभाव मिटे होगा। तात जेती विरक्तता भई होय, तितनी ही प्रतिज्ञा करनी। महामुनि भी थोरी प्रतिज्ञा कर, पीछै आहारादिविष उछटि करै। अर बड़ी प्रतिज्ञा करै हैं, सो अपनी शक्ति देखकर करै है। जैसे परिणाम चढ़ते रहै सो करै हैं, प्रमाट पी न होट अर आकुलता भी न उपजै; ऐसी प्रवृत्ति कार्यकारी जाननी। बहुरि जिनकै धर्म ऊपरि दृष्टि नाही, ते कबहूँ तो बड़ा धर्म आचरै, कबहूँ अधिक स्वच्छन्द होय प्रवर्त। जैसे कोई धर्मपर्वविषै तो बहुत उपवासादि करै, कोई धर्मपर्वविष बारम्बार भोजनादि करै। सो धर्मबुद्धि होय तो यथाशक्ति सर्व धर्मपर्वनिविष यथायोग्य संयमादि धरै। बहुरि कबहुँ तो कोई धर्मकार्यविष बहुत धन खरचै, कबहुँ कोई धर्मकार्यआनि प्राप्त भया होय, तो भी तहाँ थोरा भी धन न खरचै। सो थर्मबुद्धि होय, तो यथाशक्ति यथायोग्य सर्व ही धर्मकार्यनिविषै धन खरच्या करै। ऐसे ही अन्य जानना। बहुरि जिनके साँचा धर्मसाधन नाही, ते कोई क्रिया तो बहुत बड़ी अंगीकार करै अर कोई हीनक्रिया किया करै। जैसे धनादिकका तो त्याग किया अर चोखा भोजन चोखा वस्त्र इत्यादि विषयनिविर्षे विशेष प्रवर्ते । बहुरि कोई जामा पहरना, स्त्रीसेवन करना, इत्यादि कार्यनिका तो त्यागकरि धर्मात्मापना प्रगट करै अर पीछे खोटे व्यापारादि कार्य कर, लोकनिंद्य पापक्रियाविषै प्रवर्ते ऐसे ही कोई क्रिया अति ऊँची, कोई क्रिया अति नीची करै। तहाँ लोकनिंद्य होय थर्मकी हास्य करावै। देखो अमुक धर्मात्मा ऐसे कार्य करै हैं। जैसे कोई पुरुष एक वस्त्र तो अति उत्तम पहरै, एक वस्त्र अतिहीन पहरै तो हास्य ही होय, तैसे यह हास्य पावै है। साँचा धर्मकी तो यह आम्नाय है, जेता अपना रागादि दूर भया होय, ताके अनुसार जिस पदयिषै जो धर्मक्रिया सम्भवै, तो सर्व अंगीकार करै । जो थोरा रागादि मिट्या होय तो नीचा ही पदविर्ष प्रवर्ते परन्तु ऊँचा पद पराय नीची क्रिया न करै।' यहाँ प्रश्न- जो स्त्रीसेवनादिकका त्याग ऊपर की प्रतिमाविषे कह्या है, सो नीचली अवस्था-वाला तिनका त्याग कर कि न करे? ताका समायान- सर्वथा तिनका त्याग नीचली अवस्थावाला कर सकता नाहीं। कोई दोष लागै है, ताते ऊपरकी प्रतिमाविषे त्याग कह्या है। नीचली अवस्थाविषै जिस प्रकार त्याग सम्भवे, तैसा नीचली अवस्थावाला भी करै। परन्तु जिस नीचली अवस्थाविषै जो कार्य सम्भवै ही नाहीं ताका करना तो कषायभावनिहीत हो है। जैसे कोऊ सप्तव्यसन सेवै, स्वस्वीका त्याग करै, तो कैसे बने? यद्यपि स्वस्त्रीका त्याग करना धर्म है, तथापि पहले सप्तव्यसन का त्याग होय, तब ही स्वस्त्रीका त्याग करना योग्य है। ऐसे ही अन्य जानने। बहुरि सर्व प्रकार धर्मको न जाने, ऐसा जीव कोई धर्मका अंगको मुख्यकरि अन्य धर्मनिको गौण १. इसी ग्रन्थ का छठा अधिकार भी देखिए। पृ.सं. १४२ ॥
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy