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________________ आटदा अधिकार-२४३ बहुरि चरणानुयोगविषै कषायी जीवनिको कषाय उपजायफरि भी पापको छुड़ाईए है अर धर्मविर्ष लगाईए है। जैसे पापका फल नरकादिकके दुःख दिखाय तिनिको भय कषाय उपजाय पापकार्य छुड़ाईए है। बहुरि पुण्यका फल स्वर्गादिकके सुख दिखाय तिनको लोभ कषाय उपजाय धर्मकार्यनिविषै लगाईए है। बहुरि यहु जीव इन्द्रियविषय शरीर पुत्रधनादिकके अनुरागते पाप करै है, धर्मपराङ्मुख रहै है, ताते इन्द्रियविषयनिको मरण क्लेशादिकके कारण दिखावनेकरि तिनविष अरतिकषाय कराईए है। शरीरादिकको अशुचि दिखाक्नेकरि तहाँ जुगुप्साकषाय कराईए है, पुत्रादिको धनादिकके ग्राहक दिखाय तहाँ द्वेष कराईए है, बहुरि धनादिकको मरण क्लेशादिकका कारणदिखाय तहाँ अनिष्टबुद्धि कराईए है, इत्यादि उपायतें विषयादिविषै तीव्रराग दूरि होनेकरि तिनकै पापक्रिया छूटि धर्मविर्ष प्रवृत्ति हो है। बहुरि नाम-स्मरण स्तुतिकरण पूजा दान शीलादिकतें इस लोकविर्ष दारिद्र कष्ट दुःख दूरि हो है, पुत्रधनादिककी प्राप्ति हो है, ऐसे निरूपणकरि तिनकै लोभ उपजाय तिन धर्मकार्यनिविष लगाईए है। ऐसे ही अन्य उदाहरण जानने। यहाँ प्रश्न- जो कोई कषाय छुड़ाय कोई कषाय करावनेका प्रयोजन कहा? नाका समाधान- जैसे रोग तो शीतांग भी है अर ञ्चर भी है परन्तु कोई कै शीतांगते मरण होता जाने, तहाँ वैद्य है सो वाकै ज्चर होनेका उपाय कर, ज्वर भए पीछे वाकै जीवनेकी आशा होय, तब पीछे ज्चर के भी मेटने का उपाय करै । तैसे कषाय तो सर्व ही हेय हैं परन्तु केई जीवनिकै कषायनित पापकार्य होता जानै, तहाँ श्रीगुरु है सो उनके पुण्यकार्यको कारणभूत कषाय होने का उपाय करै, पीछे बाकै सांची धर्मबुद्धि भई जाने, तब पीछ तिस कषाय मेटने का उपाय करै; ऐसा प्रयोजन जानना। बहुरि चरणानुयोगविषै जैसे जीव पाप छोड़ि धर्मविष लागै, तैसे अनेक युक्तिकरि वर्णन करिए है। तहाँ लौकिक दृष्टान्त युक्ति उदाहरण न्यायप्रवृत्तिके द्वारि समझाईए है वा कहीं अन्यमत के भी उदाहरणादि कहिए है। जैसे सूक्तिमुक्तावली विषै लक्ष्मीको कमलवासिनी कही वा समुद्रविषै विष अर लक्ष्मी उपजे,तिस अपेक्षा विषकी भगिनी कही। ऐसे ही अन्यत्र कहिए है। तहाँ केई उदाहरणादिक झूठे भी हैं परन्तु साँचा प्रयोजनको पोष है, तातै दोष नाहीं। यहाँ कोउ कहै कि झूट का तो दोष लागै। ताका उत्तर- जो झूठ भी है अर सांचा प्रयोजनको पोषै तो वाको झूठ न कहिए। बहुरि सांच भी है अर झूठा प्रयोजनको पोषै तो वह झूठा ही है। अलंकारयुक्ति नामादिकविष वचन अपेक्षा झूट सांच नाहीं, प्रयोजन अपेक्षा झूठ सांच है। जैसे तुच्छशोभासहित नगरीको इन्द्रपुरी के समान कहिए है सो झूठ है परन्तु शोभा का प्रयोजन को पोषै है तातै झूट नाहीं । बहुरि "इस नगरीविष छत्रहीकै दंड" है, अन्यत्र नाहीं, ऐसा कह्या, सो झूठ है। अन्यत्र भी दंड देना पाईए है परन्तु - तहाँ अन्यायवान थोरे हैं, न्यायवान को दण्ड न दीजिए है, ऐसा प्रयोजनको पोष है, तातै झूठ नाहीं। बहुरि वृहस्पतिका नाम 'सुरगुरु' लिखै वा मंगलका नाम 'कुज' लिखै, सो ऐसे नाम अन्यमत अपेक्षा हैं। इनका अक्षरार्थ है सो झूटा है। परन्तु वह नाम तिस पदार्थका अर्थ प्रगट करै है, तातै झूठ नाहीं। ऐसे अन्य मतादिक के उदाहरणादि दीजिए है सो झूठे हैं परन्तु उदाहरणादिकका तो प्रदान करावना है नाहीं, श्रद्धान सो प्रयोजन का करावना है। सो प्रयोजन सांचा है, तात दोष नाहीं है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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