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________________ नवमा अधिकार-२६३ अनन्तानुबंधी का बंध करे, तहाँ बहुरि वाकी सत्ता का सद्भाव हो है । अर क्षायिकसम्यग्दृष्टी मिथ्यात्वविर्ष आवे नाही, तातै वाकै अनंतानुबंधी की सत्ता कदाचित् न होय । यहाँ प्रश्न- जो अनन्तानुबंधी तो चारित्रमोह की प्रकृति है सो चारित्र को घात, याकरि सम्यक्त्व का घात कैसे सम्भवै ? ताका समायान- अनन्तानुबंधी के उदयत क्रोधादिरूप परिणाम हो है, किछु अतत्त्व श्रद्धान होता नाहीं। तात-अनन्तानुबंधी चारित्रही को घाते है, सम्यक्त्व को नाहीं घाते है । विशेष- अनन्तानुबन्धी कषाय ४ तथा मिथ्यात्व व सम्यगिमथ्यात्व इन छह प्रकृतियों का भाव (उदयाभाव) होने पर ही सम्यक्त्व होता है तथा इनमें से एक के भी सद्भाव होने पर नियम से सम्यक्त्व नष्ट हो ही जाता है । इसप्रकार इन ६ प्रकृतियों के अन्वय व व्यतिरेक में सम्यग्दर्शन का व्यतिरेक व अन्वय निश्चित है, अतः श्यार्थशास्त्र के अनुसार सम्पतिवाइन छह प्रकृतिने को कहा है। सम्यक्त्वघातरूप कार्य अनन्तानुषन्धी के उदय से निश्चित रूप से होता है तथा अनन्तानुबंधी के उदय रहते सम्यक्त्व का उत्पाद त्रिकाल असम्भव है । इस कारण न्यायतः अनन्तानुबन्धी भी सम्यक्त्वधातक है ही और न्याय का अपलाप नहीं किया जा सकता । विपरीताभिनिवेश दो प्रकार का होता है-अनन्तानुबन्धी-जनित तथा मिथ्यात्वजनित । इन दोनों प्रकार के विपरीताभिनिवेशों के अभाव से ही सम्यक्त्व सम्भव है । (धवल १/१६५) सो परमार्थतें है तो ऐसे ही परन्तु अनन्तानुबंधी के उदयतें जैसे क्रोधादिक हो हैं, तैसे क्रोधादिक सम्यस्त्व होत न होय । ऐसा निमित्त-नैमित्तिकपना पाईए है। जैसे त्रसपना की घातक तो स्थावरप्रकृति ही है परन्तु सपना होते एकेन्द्रिय जाति प्रकृति का भी उदय न होय, ताते उपचारकरि एकेन्द्रिय प्रकृति को भी सपना का घातकपना कहिए तो दोस नाहीं । तैसे सम्यक्त्व का घातक तो दर्शनमोह है परन्तु सम्यक्त्व होते अनन्तानुबंधी कषायनिका भी उदय न होय, ताते उपचारकरि अनन्तानुबंधीक भी सम्यक्त्व का घातकपना कहिए तो दोष नाहीं । बहुरि यहाँ प्रश्न- जो अनन्तानुबंथी चारित्रही को पाते है तो याके गए किछू चारित्र भया कहो । असंयत गुणस्थानविष असंयम काहे को कहो हो ? ताका समाधान- अनन्तानुबंधी आदि भेद है, ते तीव्र मंद कषाय की अपेक्षा नाहीं है । जाते मिध्यादृष्टीके तीव्र कषाय होते वा मंदकपाय होते अनन्तानुबंधी आदि च्यारों का उदय युगपत् हो है 1 तहाँ च्यारों के उत्कृष्ट स्पर्द्धक समान कहे हैं । विशेष- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन के उत्कृष्ट स्पर्थक समान नहीं हैं । परमपूज्य जयधवल पु. ५ पृ. १३३-३४ पर लिखा है- ण तेसिं सवेसि पि चरिफदयाणि
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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