SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट - ३०१ सातवाँ अधिकार-पृ. १९५ पंक्ति २७ (४) भव्यसेन मुनि की कथा विजया: पर्वत की दक्षिण श्रेणी के मेधकूटपुर नामक नगर में राजा चन्द्रप्रभ अपनी सुमति नामकी पटरानी के साथ राज्य करता था। एक दिन राजा अपने पुत्र चन्द्रशेखर को राज्यं देकर, कुछ विद्याएँ साथ लेंकर, मुनिवन्दना करने हेतु दक्षिण मशुग गया और निगुप्त आवार्य के पास श्रावक के व्रत ग्रहण कर क्षुल्लक बन गया। वहाँ से जब वह मुनियों की वन्दना करने हेतु चला तो उसने गुरुदेव से पूछा कि प्रभो किसी को कुछ कहना हो तो मुझे बता दीजिए - मैं जा रहा हूँ - कह दूंगा। आचार्य ने कहा कि सुव्रत मुनि को नमोऽस्तु कहना और वरुण महाराज की पत्नी रेवती को धर्मवृद्धि कहना। क्षुल्लक ने पुनः पूछा कि और किसी को तो कुछ नहीं कहना है? आचार्य ने मना कर दिया। क्षुल्लक ने पुनः पूछा तो भी आचार्य ने वही उत्तर दिया। क्षुल्लक ने मन में सोचा कि “वहाँ भव्यसेन नाम के मुनि भी रहते हैं लेकिन गुरु ने उनका नाम भी नहीं लिया, इसका क्या कारण है? चलो, वहीं चल कर देखूगा कि क्या बात है?" इस प्रकार विचार कर क्षुल्लक उत्तर मथुरा पहुंचा और सुव्रत मुनि को आचार्य का नमोस्तु कह कर भव्यतेन मुनि के स्थान पर गया। भव्यसेन मुनि ने क्षुल्लक से यात भी नहीं की। जब भव्यसेन कमण्डलु लेकर बाहर जाने लगा तो क्षुल्लक भी उसके साथ हो लिया। उसने विद्या के प्रभाव से सारे रास्ते में पास ही घास पैदा कर दी। भव्यसेन मुनिराज घास को देख कर भी उस पर पैर रखकर चले गये। इसके बाद जब भव्यसेन शौच से निवृत्त हुए तो क्षुल्लक ने अपनी विद्या से कमण्डलु का पानी सुखा दिया और मुनि से कहा कि “भगवन्! कमण्डलु में पानी नहीं है और न कोई प्रासुक ईंट ही दिखाई देती है अतः मिट्टी लेकर इस तालाब में आप शुचि कर लें। मव्यसेन मुनि ने इसको अनाचार समझकर भी आगम की उपेक्षा कर शुद्धि कर ली। भव्यसेन मुनि के इस प्रकार के आचरण से क्षुल्लक ने समझ लिया कि ये मुनि द्रव्यलिंगी हैं। अतः उनका नाम उसने भव्यसेन की जगह अभव्यसेन कर दिया। - षट्प्राभृत-भावप्राभृत-गाथा ५२ टीका सातवाँ अधिकार-पृ. १९७ पंक्ति २५ (५) यमपाल चाण्डाल की कथा काशी के राजा पाकशासन ने एक समय अपनी प्रजा को महामारी से पीड़ित देख कर ढिंढोरा पिटवा दिया कि “नन्दीश्वर पर्व में आठ दिन पर्यन्त किसी जीव का वध न हो। इस राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्राणदण्ड का भागी होगा। वहीं एक सेठपुत्र रहता था। उसका नाम तो था धर्म, पर असल में वह महा अधर्मी था। सप्त व्यसनों का सेवन करने वाला था। उसे मांस खाने की बुरी आदत पड़ी हुई थी। एक दिन भी बिना मांस खाये उससे नहीं रहा जाता था। एक दिन वह गुप्तरीति से राजा के बगीधे में गया। यहाँ राजा का एक खास मेंढ़ा बँधा करता था। उसने उसे मार डाला और उसके कच्चे ही मांस को खाकर उसकी हड्डियों को एक गड्ढे में गाड़ दिया।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy