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________________ आठवाँ अधिकार- २३६. स्थिति बन्ध संख्यातगुणा है। ( समस्त अक्षपक - अनुपशमक संयमी व सम्यक्त्वी में भी स्थितिबन्ध एकेन्द्रिय से संख्यातगुणा ही होता है (ज. ध. १३/ २१६ जयभ्र. १४ । १६१ आदि) अतः संख्यातगुणे विशतिबन्ध की नियाएक हेतुपत कषाय नियम से अनन्तगुणी सिद्ध होती है । कारण देखो - {थवल ११ / २२६ - २३७] संख्यातगुणी स्थिति वृद्धि अनंतगुणत्व युक्त कषाय से ही हो सकती है; यही न्याय्य है [ धवल ११ पृष्ठ २३५-३६ ] और कषाय के बिना स्थितिबन्ध होता नहीं। कहा भी है-ठिदि अणुभागं कसायदो कुणइ ( पंचसंग्रह प्रा. ४ / ५३, स. सि. ८/३ ययल १२/२८६, द्र. स. ३३, रा. वा. ८/३/६ आदि) (३) पंचेन्द्रिय संज्ञी शुभ लेश्यावान देव स्थावर की आयु भी बाँधता है (तह ते चय थावर तन धरै (छहढाला ) } । जबकि असंजी ही होता है ऐसा एकेन्द्रिय निगोद सीधा चरम शरीरी मनुष्य की आयु को अशुभ लेश्या के होते [ धवल २ / ५७१] भी बाँध लेता है ( सिलोयपण्णत्ती ५ / ३१६ चोत्तीस भेद संजुत्त... ) । ऐसी स्थिति में किसके परिणाम प्रशस्त कहे जाएंगे किसकी कषाय मन्द कही जाएगी? स्पष्ट है कि उक्त दो कालों की तुलना करने पर तो एकेन्द्रिय की ही कषाय मन्द है । पारिशेष न्यायतः (४) कषाय व लेश्या सर्वथा एक नहीं हैं, ये भिन्न-भिन्न परिणाम हैं। अकषायी जीव के भी लेश्या हो सकती है, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है । ( थ. १/१५०-५१ - ३६३ आदि) अथवा मिथ्यात्य, असंयम, कषाय व योग; ये सब लेश्या हैं जबकि कषाय तो मात्र कषायात्मक ही हैं अतः कषाय व लेश्या एक नहीं हो सकते। (धवल ८ / ३५६ ) (५) लेश्याओं में कुछ अंश सामान्य (Common) होते हैं। जिससे एक लेश्या तुल्य कार्य अन्य लेश्या में हो जाते हैं तथा शुक्ल लेश्यावान मिध्यात्वी देव भी अपनी देव पर्याय से च्युत होने के ठीक अनन्तर समय में सीधा (Direct) मनुष्य पर्याय के प्रथम समय में अशुभत्रिक में से एक लेश्या को प्राप्त होता हुआ नजर आता है। ( ब्र. रतनचन्द्र पत्रावली तथा गो.जी. पृ. ५८५ आदि) इस प्रकार एकेन्द्रियों की कषाय संज्ञी पंचेन्द्रिय या इतर पंचेन्द्रिय से अधिक नहीं होती, हीन ही होती है। {क्षपक उपशमक यहाँ अप्रकृत हैं} ज.. १२ पृ. १६६ - १७१ में भी अत्यन्त स्पष्ट लिखा है कि असंज्ञी जीव (एकेन्द्रिय आदि) के कषायों का उदय व बन्ध द्विस्थानीय ही नियम से होता है परन्तु संज्ञी तो कषायों का चतुःस्थानीय बन्ध व उदय भी करता है। (see also मूल क. पा. सु. चतुस्थान ८/८५) इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि देवों से एकेन्द्रियों की कषाय नियम से अनन्तगुणी हीन ही होती है। यह अकाट्य सत्य है । बहुरि कोई जीवके मन वचन काय की चेष्टा थोरी होती दीसे, तो भी कर्माकर्षण शक्ति की अपेक्षा बहुत योग कह्या । काहूकै चेष्टा बहुत दीसे तो भी शक्ति की हीनतातें स्तोक योग कह्या जैसे केवली
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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