SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२८४ ऐसे अनुक्रमते इनको अंगीकार करि १. पीछे इनहीविषै कबहू देवादिक का विचारविष, कबहू तत्त्वविचारविष, कबहू आपापरका विचारविषे, कबहू आत्मविचारविषै उपयोग लगावै। ऐसे अभ्यासतें दर्शनमोह मन्द होता जाय तब कदाचित् साँचा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होय; बहुरि ऐसा नियम तो है नाहीं। कोई जीव के कोई विपरीत कारण प्रबल बीच में होय जाय, तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नाहीं भी होय परन्तु मुख्यपने घने जीवनि कै तो इस अनुक्रम” कार्यसिद्धि हो है। ताः इनिको ऐसे अंगीकार करने। जैसे पुत्र का अर्थी विवाहादि कारणनिको मिलावै, पीछे धने पुरुषनिकै तो पुत्र की प्राप्ति होय ही है। काहूकै न होय तो न होय। याको तो उपाय करना । तैसे सम्वच का अर्थी इति कारणनिको मिलाये, पीछे घने जीवनि के तो सम्पक्त्व की प्राप्ति होय ही है। काहूकै न होय तो नाहीं भी होय । परन्तु याको तो आपते बने सो उपाय करना। ऐसे सम्यक्त्व का लक्षण निर्देश किया। यहाँ प्रश्न- जो सम्यक्त्व के लक्षण तो अनेक प्रकार कहै, तिन विषै तुम तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण को मुख्य किया, सो कारण कहा? ताका समाधान- तुच्छबुद्धीनिको अन्य लक्षणविषै प्रयोजन प्रगट भासै नाही वा भ्रम उपजै। अर इस तत्त्यार्थ श्रद्धान लक्षणविषै प्रगट प्रयोजन भासै किछू भ्रम उपजै नाहीं । तातें इस लक्षण को मुख्य किया है। सोई दिखाइए है ___ देवगुरुधर्म का श्रद्धानविषे तुच्छबुद्धीनिको यहु भासै- अरहंतदेवादिकको मानना और को न मानना, इतना ही सम्यक्त्व है। तहाँ जीव अजीव का वा बंथमोक्ष के कारणकार्य का स्वरूप न मास, तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न होय वा जीवादिक का श्रद्धान भए बिना इस ही श्रद्धानविषै सन्तुष्ट होय आपको सम्यक्त्वी माने। एक कुदेवादिकर्ते द्वेष तो राखै, अन्य रागादि छोड़ने का उद्यम न करे, ऐसा प्रम उपजै। बहुरि आपापरका श्रद्धानविषै तुच्छबुद्धीनिको यहु भासै कि आपापरका ही जानना कार्यकारी है। इसते ही सम्यक्त्व हो है। तहाँ आस्रवादिकका स्वरूप न भासे। तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न होय वा आमवादिक का श्रद्धान भए बिना इतना ही जाननेविष सन्तुष्ट होय आपको सम्यक्त्वी मान स्वच्छन्द होय रागादि छोड़ने का उद्यम न करै, ऐसा भ्रम उपजै। बहुरि आत्मश्रद्धानयिषै तुच्छबुद्धीनिको यहु भासै कि आत्माही का विचार कार्यकारी है। इसहीत सम्यक्त्व हो है। तहाँ जीव अजीवादिक का विशेष वा आम्नवादिक का स्वरूप न भासै, तब मोक्षमार्ग प्रयोजन की सिद्धि न होय या जीवादिक का विशेष या आनवादिक का श्रद्धान भए बिना इतना ही विचारतें आपको सम्यक्त्वी माने स्वच्छन्द होय रागादि छोड़ने का उद्यम न करै। याकै भी ऐसा प्रम उपजै है। ऐसा जानि इन लक्षणनिको मुख्य न किए। बहुरि तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणविष जीव अजीवादिक का वा आम्नवादिक का श्रद्धान होय। तहाँ सर्व का स्वरूप नीके भासै, तब मोक्षमार्ग के प्रयोजन की सिद्धि होय । बहुरि इस श्रद्धान भए सम्यक्त्व होय परन्तु यहु सन्तुष्ट न हो है। आस्रवादिक का श्रद्धान होने से रामादि छोड़ि मोक्ष का उद्यम राखै है। याकै प्रम न उपजै है। तातै तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणको मुख्य किया है। अथवा तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणविष तो देवादिक का श्रद्धान वा आपापर का प्रधान या. आत्मश्रद्धान गर्भित हो है सो तो तुच्छबुद्धीनिको भी भासै। बहुरि अन्य
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy