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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-४२ तिन विषयनिको अपने आधीन राखि शीघ्र-शीघ्र ग्रहण करे सो वे आधीन रहते नाहीं। वे तो जुदे द्रव्य अपने आधीन परिणम हैं वा कर्मोदय के आधीन है। सो ऐसा कर्मका बन्थ यथायोग्य शुभ भाव भए होय। फिर पीछे उदय आवै सो प्रत्यक्ष देखिए है। अनेक उपाय करते भी कर्भका निमित्त बिना सामग्री मिलै नाहीं । बहुरि एक विषय को छोड़ि अन्य का ग्रहणकों ऐसे हापटा मार है सो कहा सिद्धि हो है। जैसे मणकी भूख वाले को कण मिल्या तो भूख कहा मिटै? तैसे सर्व का ग्रहण की जाकै इच्छा ताकै एक विषयका ग्रहण भए इच्छा कैसे मिटै? इच्छा मिटे बिना सुख होता नाहीं । ताते यह उपाय झूटा है। कोऊ पूछ कि इस उपायते केई जीव सुखी होते देखिए हैं, सर्वथा झूठ कैसे कहो हो? ताका समाधान-सुखी तो न हो है, अमतें सुख माने है। जो सुखी भया सो अन्य विषयनि की इच्छा कैसे रही। जैसे रोग मिटे अन्य औषध काहेको थाहै, तैसे दुःख मिटे अन्य विषयको काहेको थाहै। ताते विषयका ग्रहणकरि इच्छा थंभि जाय तो हम सुख मानें। सो तो यावत् जो विषय ग्रहण न होय तावत् काल तो तिसकी इच्छा रहै अर जिस समय वाका ग्रहण भया तिसही समय अन्य विषय ग्रहण की इच्छा होती देखिए है तो यह सुख मानना कैसे है। जैसे कोऊ महा क्षुधायान रंक ताको अन्नका एक कण मिल्या ताका भक्षण कार चैन माने, तैसे यह महातृष्णावान याको एक विषयका निमित्त मिल्या ताका ग्रहणकरि सुख मानै है। परमार्थः सुख है नाहीं। फोऊ कई जैसे कण-कणकार अपनी भूख मेटे तैसे एक-एक विषयका ग्रहणकरि अपनी इच्छा पूरण करे तो दोष कहा? ताका समाधान-जो कण भेले होय तो ऐसे ही मानै। परन्तु जब दूसरा कण मिलै तब तिस कण का निर्गमन हो जाय तो कैसे भूख मिटै? रेसे ही जानने विषै विषयनिका ग्रहण भेले होता जाय तो इच्छा पूरन होय जाय परन्तु जब दूसरा विषय ग्रहण करे तब पूर्व विषय ग्रहण किया था साका जानना रहे नाही तो कैसे इच्छा पूरण होय? इच्छा पूरन भये बिना आकुलता मिटे नाहीं। आकुलता मिटे बिना सुख कैसे कया जाय । बहुरि एक विषयका ग्रहण भी मिथ्यादर्शनादिक का सद्भाव पूर्वक करे है साते आगामी अनेक दुःखका कारन कर्म बंधे है। जातें यह वर्तमानविषे सुख नाहीं, आगामी सुखका कारन नाही, तार्तं दुःख ही है। सोई प्रवचनसार विष करण है सपरं बापासदिय विच्छिणं बंधकारणं विसम । ज इंदिपहिं खखत सोक्ख दुक्खमेव बाधा*।। याका अर्थ-जो इन्द्रियनिकरि पाया सुख सो पराधीन है, बाधा सहित है, विनाशीक है, बँधका कारण है, विषम है सो ऐसा सुख तैसा दुःख ही है, ऐसे इस संसारीकरि किया उपाय झूटा जानना। तो सांचा उपाय कहा? * प्रवचनसार १/७६ में तहा' पाठ दिया है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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