SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२५८ है परन्तु आपकै यावत् तिस धर्मकार्य तें हित होय तावत् तिसका ग्रहण करै। जो ऊँची दशा होते नीची दशा सम्बन्धी धर्मका सेवनविषे लागै तो उल्टा विकार ही होय। यहाँ उदाहरण- जैसे पाप मेटने के अर्थि प्रतिक्रमणादि धर्मकार्य कहे, तसा आल होते कि आदिक शि५ करै तो उल्टा विकार बथै, याहीते समयसार विर्षे प्रतिक्रमणादिकको विष का है। बहुरि जैसे अव्रतीके करने योग्य प्रभावनादि धर्मकार्य कहे, तिनको व्रती होयकार करै तो पाप ही बाँथे । व्यापारादि आरम्भ छोड़ि चैत्यालयादि कार्यनिका अधिकारी होय सो कैसे बनै? ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि जैसे पाकादिक औषधि पुष्टकारी है परन्तु ज्वरवान् ग्रहण करै तो महादोष उपजै । तैसे ऊँचा धर्म बहुत भला है परन्तु अपने विकारभाव दूरि न होय अर ऊँचा धर्म ग्रहै तो महादोष उपजे। यहाँ उदाहरण-जैसे अपना अशुभविकार भी न छूट्या अर निर्विकल्प दशाको अंगीकार करै तो उल्टा विकार बथै । बहुरि जैसे भोजनादि विषयनिविषै आसक्त होय अर आरम्भ त्यागादि धर्मको अंगीकार कर तो दोष ही उपजै। बहुरि जैसे व्यापारादि करनेका बेकार तो न छूटै अर त्यागका भेषरूप धर्म अंगीकार करै तो महादोष उपजै। ऐसे ही अन्यत्र जानना। याही प्रकार और भी साँचा विचारतें उपदेशको यथार्थ जानि अंगीकार करना। बहुत विस्तार कहाँ ताईं कहिए। अपने सम्याज्ञान भए आपहीको यथार्थ भासै । उपदेश तो वचनात्मक है। बहुरि वचनकरि अनेक अर्थ युगपत् कहे जाते नाहीं । तात उपदेश तो एक ही अर्थकी मुख्यता लिए हो है। बहुरि जिस अर्थका जहाँ वर्णन है, तहाँ तिसहीकी मुख्यता है। दूसरे अर्थ की तहाँ ही मुख्यता करै तो दोऊ उपदेश दृढ़ न होय । तातें उपदेशविष एक अर्थको दृढ़ करै। परन्तु सर्व जिनमत का चिह्न स्याद्वाद है सो 'स्यात्' पदका अर्थ कथंचित है। तातै जो उपदेश होय ताको सर्वथा न जानि लेना। उपदेशका अर्थको जानि तहाँ इतना विचार करना, यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन लिए है, किस जीयको कार्यकारी है? इत्यादि विचारकरि तिसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करै, पीछे अपनी दशा देखै, जो उपदेश जैसे आपको कार्यकारी होय तिसको तैसे आप अंगीकार करै अर जो उपदेश जानने योग्य ही होय तो ताको यथार्थ जानि लै । ऐसे उपदेश के फलको पादै। यहाँ कोई कहे- जो तुच्छ बुद्धि इतना विचार न कर सकै सो कहा करै? ताका उत्तर- जैसे व्यापारी अपनी बुद्धिके अनुसारि जिसमें समझै सो थोरा वा बहुत व्यापार करै परन्तु नफा टोटाका ज्ञान तो अवश्य चाहिए। तैसे विवेकी अपनी बुद्धिके अनुसारि जिसमें समझै सो थोरा वा बहुत उपदेशको ग्रहै परन्तु मुझको यहु कार्यकारी है, यह कार्यकारी नाही- इतना तो ज्ञान अवश्य चाहिए। सो कार्य तो इतना है- यथार्थ श्रद्धानज्ञानकरि रागादि घटावना। सो यहु कार्य अपने सथै, सोई उपदेशका प्रयोजन ग्रहै। विशेष ज्ञान न होय तो प्रयोजनको तो मूल नाही, यह तो सावधानी अवश्य चाहिए। जिसमें अपने हितकी हानि होय, तैसे उपदेशका अर्थ समझना योग्य नाहीं। या प्रकार स्याद्वाददृष्टि लिए जैनशास्त्रानका अभ्यास किए अपना कल्याण हो है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy