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________________ चौया अधिकार-६३ पुरुष है सो जिनसों प्रयोजन नाही, तिनको अन्यथा जाने वा यथार्थ जाने, बहुरि जैसे जाने तैसे ही माने, किछु वाका बिगार सुधार है नाही, तातै बाउला स्याना नाम पायै नाहीं। बहुरि जिनसों प्रयोजन पाइए है, तिनको जो अन्यथा आनै अर तैसे माने तो बिगर होइ ताते वाको बाउला कहिए। बहुरि तिनको जो यथार्थ जानै अर तैसे ही माने तो सुधार होइ तातें याको स्याना कहिए तैसे ही जीव है सो जिनस्यों प्रयोजन नाही, तिनको अन्यथा जानो वा यथार्थ जानो बहुरि जैसे जाने तैसे ही श्रदान कर, किछु याका बिगार सुधार नाही सात मिथ्यावृष्टि सम्यग्दृष्टि नाम पावै नाहीं। बहुरि जिनस्यों प्रयोजन पाइए है तिनको जो अन्यथा जानै अर तैसे ही श्रद्धान करे तो बिगार होइ तात याको मिथ्यादृष्टि कहिए । बहुरि तिनको जो यथार्थ जानै अर तैसे ही श्रद्धान करै तो सुधार होइ तात याको सम्यग्दृष्टि कहिए। इहाँ इतना जानना कि अप्रयोजनमूत या प्रयोजनमूत पदार्यनिका न जानना वा यथार्थ अयथार्थ जानना जो होइ तामें ज्ञानकी हीनताअधिकता होना, इतना जीवका बिगार-सुधार है। ताका निमित्त तो ज्ञानावरण कर्म है। बहुरि तहां प्रयोजनभूत पदार्थनिको अन्यथा वा यथार्थ श्रद्धान किए जीवका किछु और भी बिगार-सुधार हो है। ता” याका निमित्त दर्शनमोह नामा कर्म है। __ इहाँ कोऊ कहै कि जैसा जानै तैसा श्रद्धान करै ता. ज्ञानाधरणही के अनुसारि श्रद्धान भामै है. इहां दर्शनमोहका विशेष निपित्त कैसे भासै? ताका समाधान-प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धान करने योग्य ज्ञानावरणका क्षयोपशम तो सर्व संजी पंचेन्द्रियनिकै भया है। परन्तु द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अंग पर्यंत पढ़े या ग्रैवेयकके देव अवधिज्ञानादियुक्त हैं तिनकै ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होते भी प्रयोजनभूत जीवादिका श्रद्धान न होइ। अर तियेचादिककै ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोरा होतें भी प्रयोजनभूत जीवादिकका श्रद्धान होइ, तातें जानिए है ज्ञानावरणहीके अनुसारि श्रद्धान नाहीं। कोई जुदा कर्म है सो दर्शनमोह है। याके उदयतें जीवकै मिथ्यादर्शन हो है तब प्रयोजनभूत जीवादितत्त्वनिका अन्यथा श्रद्धान करै है। प्रयोजन-अप्रयोजनभूत पदार्थ इहां कोऊ पूछ कि प्रयोजनभूत अप्रयोजनभूत पदार्थ कौन-कौन है? ताका समाधान-इस जीवके प्रयोजन तो एक यहु ही है कि दुःख न होय, सुख होय। अन्य किछू भी कोई ही जीवकै प्रयोजन है नाहीं। बहुरि दुःख का न होना, सुख का होना एक ही है, जात दुःख का अभाव सोई सुख है। सो इस प्रयोजन की सिद्धि जीवादिकका सत्य श्रद्धान किए हो है। कैसे? सो कहिए है। प्रथम तो दुःख दूर करने विषै आपापरका ज्ञान अवश्य चाहिए। जो आपापरका ज्ञान नाही होय तो आपको पहिचाने बिना अपना दुःख कैसे दूरि करे। अथवा आपापरको एक जानि अपना दुःख दूर करनेके अर्थि परका उपचार करै तो अपना दुःख दूर कैसे होइ? अथवा आपलें पर भिन्न अर यहु परविष अहंकार ममकार करे तातै दुःख ही होय। आपापरका ज्ञान भए ही दुःख दूर हो है। बहुरि आपापरका ज्ञान
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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