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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-५४ कर भी घने दुःखी हैं, बहुरि क्रोधादि कषायका अति तीव्रपना पाइए है, जाते उनके कृष्णादि अशुभलेश्या ही हैं। तहाँ क्रोथ मानकरि परस्पर दुःख देनेका निरन्तर कार्य पाइए है। जो परस्पर मित्रता करे तो यह दुःख मिट जाय। अर अन्य को दुःख दिए किछू उनका कार्य भी होता नाहीं परन्तु क्रोध मानका अति तीव्रपना पाइए है ताकरि परस्पर दुःख देनेहीकी बुद्धि रहै। विक्रियाकरि अन्यको दुःखदायक शरीर के अंग बनावै वा शस्त्रादि बनावै तिनकरि अन्यको आप पीड़े, अर आपको कोई और पीड़े कदाचित् कषाय उपशांत होय नाहीं। बहुरि माया लोभ की भी अति तीव्रता है परन्तु कोई इष्ट सामग्री तहाँ दीखे नाहीं । तासे तिन कषायनिका कार्य प्रगट करि सकते नाही तिनकार अंतरंगविष महादुःखी हैं। बहुरि कदाचित् किंचित् कोई प्रयोजन पाय तिनका भी कार्य हो है। बहुरि हास्य रति कषाय हैं परन्तु बाह्य निमित्त नाहीं, तातै प्रगट होते नाही, कदाचित् किंचित् किसी कारण हो हैं। बहुरि अरति शोक भय जुगुप्सानिके बाह्य कारण बनि रहै हैं, तातै ए कषाय तीव्र प्रकट होय हैं। बहुरि वेदनिविष नपुंसकवेद है सो इच्छा तो बहुत अर स्त्री पुरुषस्यों रमनेका निमित्त नाही, ता महापीड़ित हैं। ऐसे कषायनिकरि अति दुःखी हैं। बहुरि वेदनीय विषै असाताहीका उदय है ताकरि तहाँ अनेक वेदनाका निमित्त है। शरीर विषै कोढ़ कास श्वासादि अनेकरोग युगपत् पाइए है अर क्षुधातृषा ऐसी हैं, सर्वका भक्षण-पान किया चाहै है अर तहांकी माटीहीका भोजन मिलै है सो माटीभी ऐसी है जो इहां आवै तो ताका दुर्गध केई कोसनिके मनुष्य मरि जाय। अर शीत उष्ण तहां ऐसा है जो लक्ष योजन का लोहका गोला होइ सो भी तिनकरि भस्म होय जाय। कहीं शीत है, कहीं उष्ण है। बहुरि तहाँ पृथ्वी शस्त्रनितें भी महातीक्ष्ण कंटकनि कर सहित है। बहुरि तिस पृथ्वीविषै वन हैं सो शस्त्र की धारा समान पत्रादि सहित हैं। नदी है तो ताका स्पर्श भए शरीर खंड-खंड होइ जाय ऐसे जल सहित है। पवन ऐसा प्रचण्ड है जाकर शरीर दग्ध हुवा जाप है। बहुरि नारकी नारकीको अनेक प्रकार पीई, घाणीमें पेलै; खंड खंड करै, हांडीमें रांधे, कोरडा मारै, तप्त लोहादिकका स्पर्श करावै इत्यादि वेदना उपजावै। तीसरी पृथ्वी पर्यंत असुरकुमारदेव जाय ते आप पीड़ा दे वा परस्पर लड़ावै । ऐसी वेदना होते भी शरीर छूटे नाहीं, पारावत् खंड-खंड होई जाय तो भी मिल जाय, ऐसी महापीड़ा है। बहुरि साताका निमित्त तो किछु है नाहीं। कोई अंश कदाचित् कोईकै अपनी मानते कोई कारण अपेक्षा साताका उदय हो है सो बलवान नाहीं । बहुरि आयु तहाँ बहुत, जघन्य दशहजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागर । इतने काल ऐसे दुःख तहाँ सहने होय। बहुरि नामकर्मकी सर्वपापप्रकृतिनि ही का उदय है, एक भी पुण्यप्रकृतिका उदय नाही, तिन करि महादुःखी हैं। विशेष-नरकगति में पंचेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अगुरुलघु, त्रस बादर पर्याप्त, स्थिर, शुभ, निर्माण, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, प्रत्येक शरीर, परघात, उच्छ्वास नामकर्म की इन प्रशस्त प्रकृतियों का उदय भी नारकियों के होता है। (गो.क. २६०-६१, पवल ७/३२-३३)। इस प्रकार नारकी के उक्त पुण्य प्रकृतियों का भी उदय आता है। ___ बहुरि गोत्रयिषे नीचगोत्रहीका उदय है ताकरि महंतता न होइ तातै दुःखी हो हैं; ऐसे नरकगतिविषै महादुःख जानने।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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