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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२० सो बनै नाहीं । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है। सो वे सम्यग्दर्शनका स्वरूप तो ऐसा कहै हैं अरहंतो महदेवो जावज्जीवं सुसाहणो गुरुणो। जिणपण्णत्तं तत्तं ए सम्मत्तं मए गहियं ।।१।। सो अन्य लिंगीकै अरहंतदेव, साधु, गुरु, जिनप्रणीत तत्त्व का मानना कैसे सम्भवै? तब सम्यक्त्व भी न होय, तो मोक्ष कैसे होय । जो कहोगे अंतरंग विष श्रद्धान होनेते सम्यक्च तिनकै हो है, सो विपरीत लिंगधारक की प्रशंसादिक किए भी सम्यक्त्वको अतीचार कह्या है सो सांचा श्रद्धान भए पीछे आप विपरीत लिंगका धारक कैसे रहै। श्रद्धान भए पीछे महाव्रतादि अंगीकार किए सम्यक्चारित्र होय सो अन्यलिंगविषे कैसे बनै? जो अन्यलिंगविषै भी सम्यक्चारित्र हो है तो जैन लिंग अन्य लिंग समान भया, तातें अन्य लिंगीको मोक्ष कहना मिथ्या है। बहुरि गृहस्थको मोक्ष कहै सो हिंसादिक सर्व सावद्ययोग का त्याग किए सामायिकचारित्र होय सो सर्वसावध योगका त्याग किए गृहस्थपनो कैसे सम्भवै? जो कहोगे-अंतरंग त्याग भया है तो यहाँ तो तीनों योगकरि त्याग करै हैं, कायकरि त्याग कैसे भया? बहुरि बाह्य परिग्रहादिक राखें भी महाव्रत हो है, सो महाव्रतनिविषै तो बाह्य त्याग करने की ही प्रतिज्ञा करिए है, त्याग किए बिना महाव्रत न होय । महाव्रत बिना छटा आदि गुणस्थान न हो हैं, तो तब मोक्ष कैसे होय? तातै गृहस्थको मोक्ष कहना मिथ्या वचन हैं। स्त्रीमुक्ति का निषेध बहुरि स्त्रीको मोक्ष कहै, सो जाकरि सप्तम नरक गमन योग्य पाप न होय सकै, ताकरि मोक्ष का कारण शुद्ध भाव कैसे होय? जातें जाके भाव दृढ़ होय, सोही उत्कृष्ट पाप वा धर्म उपजाय सके है। बहुरि स्त्रीकै निशंक एकांतविष ध्यान धरना अर सर्व परिग्रहादिकका त्याग करना सम्भवै नाहीं। जो कहोगे, एक समयविषै पुरुषवेदी वा स्त्रीवेदी वा नपुसंकवेदीको सिद्धि होनी सिद्धान्तविषै कही है, ता” स्त्रीको मोक्ष मानिए है। सो यहाँ ए भाववेदी है कि द्रव्यवेदी है, जो भाववेदी है तो हम मान ही हैं। द्रव्यवेदी है तो पुरुषस्त्रीवेदी तो लोकविर्ष प्रचुर दीसै हैं, नपुंसक तो कोई विरला दीसे है। एक समयविषै मोक्ष जानेवाले इतने नपुंसक कैसे सम्भवै? तात द्रव्यवेद अपेक्षा कथन बनै नाहीं । बहुरि जो कहोगे, नवम गुणस्थानताई वेद कहे हैं, सो भी भाववेद अपेक्षा ही कथन है। द्रव्यवेद अपेक्षा होय तो चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त वेदका सद्भाव कहना सम्भवै । तातें स्त्रीकै मोक्षका कहना मिथ्या है। शूद्रमुक्ति का निषेध बहुरि शूद्रनिको मोक्ष कहै । सो चांडालादिकको गृहस्थ सन्मानादिककरि दानादिक कैसे दे, लोकविरुद्ध होय । बहुरि नीचकुलबालों के उत्तम परिणाम न होय सके। बहुरि नीचगोत्रकर्मका उदय तो पंचम गुणस्थान पर्यन्त ही है। ऊपरिके गुणस्थान चढ़े बिना मोक्ष कैसे होय। जो कहोगे-संयम धारे पीछे वाकै उच्चगोत्रही का उदय कहिए, तो संयम धारने न धारने की अपेक्षार्तं नीच उच्च गोत्र का उदय ठहरया। ऐसे होते असंयमी मनुष्य तीर्थकर क्षत्रियादिक तिनकै भी नीच गोत्रका उदय टहरै । जो उनकै कुल अपेक्षा उच्चगोत्रका
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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