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________________ मधमा अधिकार -२९६ उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग रूप है। इस काल में वह यदि सम्यक्त्व पाता है तो उपशम सम्यक्त्व ही पावेगा तथा दो का (मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व का) उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि बन जायगा। कहा भी है अट्ठाविससंतकम्मियमिच्छाइट्टिणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण सम्मत्ते उव्वेल्लिदे सत्तावासविहत्ती होदि। तदो सव्वुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदि भागमेत्तकालेण जाव सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लेदि ताव सत्तावीसविहत्तीए पलिदोवमस्म असंखेज्जदि भागमेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो। (श्री जयधवल २/२५५) अर्थ- “२८ प्रकृतियों की सत्ता वाला (यानी दर्शनमोह की ३ प्रकृति वाला) मिथ्यात्वी जीव पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल द्वारा सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके २७ प्रकृतिक (यानी दर्शनमोह की दो) सत्ता वाला होता है। इसके बाद वह जीव जब तक सबसे उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना करता है तब तक उसके २७ प्रकृतिक स्थान पाया जाता है। इस तरह २७ प्रकृतिक स्थान का उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें माग प्रमाण है।" यानी सादि मिथ्यात्ची के दर्शनमोह की दो प्रकृति की सत्ता असंख्यात अन्तर्मुहूर्त तक रह सकती है। अब हम उस आगम को देखते हैं जहाँ यह लिखा है कि २७ प्रकृतिक सत्त्व वाला मिथ्यात्वी भी उपशम सम्यक्त्व को पाता है। २७ प्रकृतिक सत्त्व स्थानवाला उपशम सम्यक्त्व पाता है। (ज.ध.८/३२ विशे.) श्री जयधवल १२/२०८ में लिखा है अणादियमिच्छाइट्टिस्स सादिमिच्छाइट्ठिस्स छबीससंतकम्मियस्स वा तदुवलंभादो। अहवा सम्मत्तेण विणा मोहणीयस्स सत्तावीसं पयडीओ संतकम्मं होइ, सम्मत्तमुवेलिय उक्समसम्मत्ताहिमुहम्मि तदविरोहादो। अथवा सम्मत्तेण सह अटावीससंतकम्म होइ, वेदगपाओग्गकालं बोलिय सम्मतमणिव्वेलियूण उवसमसम्मत्ताहिमुहम्मि तहाविहसंभवदंसणादो। अर्थ- उपशमसम्यक्त्वाभिमुख जीव के- अनादि मिथ्यादृष्टि के तथा २६ प्रकृति सत्कर्म वाले सादि मिथ्यादृष्टि के २६ का सद्भाव पाया जाता है। अथवा सादि मिथ्यावृष्टि के सम्यक्त्व प्रकृति के बिना मोहनीय की २७ प्रकृतियाँ सत्कर्म रूप से होती हैं क्योंकि सम्यक्त्व की उद्वेलना कर उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के उनके होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा, २८ प्रकृतियाँ सत्कर्म रूप से होती हैं क्योंकि वेदकसम्यक्त्व के योग्य काल का उल्लंघन कर, जिसने सम्यक्त्व प्रकृति की
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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