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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१३० ढूंढक मत निराकरण बहुरि इन श्वेताम्बरनिविषै ही ढूंढिए प्रगट भए हैं, ते आपको सांचे धर्मात्मा मानै हैं, सो भ्रम है। काहैते सो कहिए है केई तो भेष धारि साधु कहावै है, सो उनके ग्रन्थनिके अनुसार भी व्रत समिति गुप्ति आदि का साधन नाहीं भारी हैं। बहुरि देखो मन वचन का त कानुदिनापारिभर्स जादा पग करने की प्रतिज्ञा करै, पीछे पालै नाहीं। बालकको वा भोलाको वा शूद्रादिकको ही दीक्षा दे। सो ऐसे त्याग करै अर त्याग करते ही किछू विचार न करै, जो कहा त्याग करूँ हूँ। पीछै पालै भी नाही अर ताको सर्व साधु माने। बहुरि यह कहै -- पीछे धर्मबुद्धि हो जाय, तब तो याका भला हो है। सो पहले ही दीक्षा देने वाले ने प्रतिज्ञा भंग होती जानि प्रतिज्ञा कराई, बहुरि यानै प्रतिज्ञा अंगीकार करि भंग करी, सो यहु पाप कौनको लाग्या। पीछे थर्मात्मा होने का निश्चय कहा। बहुरि जो साधुका धर्म अंगीकार करि यथार्थ न पाले, ताको साधु मानिए कै न मानिए । जो मानिए तो जे साधु मुनि नाम धरायै हैं अर भ्रष्ट हैं, तिन सबनिको साधु मानो। न मानिए, तो इनकै साधुपना न रह्या । तुम जैसे आचरणते साधु मानो हो, ताका भी पालना कोऊ बिरलाकै पाइए है। सबनिको साधु काहेको मानो हो। यहाँ कोऊ कहै-हम तो जाकै यथार्थ आचरण देखेंगे, ताको साधु मानेंगे, औरनिको न मानेंगे। ताको पूछिए है एक संघ विष बहुत भेषी हैं। तहाँ जाकै यथार्थ आचरण मानो हो सो वह औरनिको साधु मानै है कि न माने है। जो माने है, तो तुम भी अश्रद्धानी भया, ताको पूज्य कैसे मानो हो। अर न माने है, तो उन सेती साधुका व्यवहार काहेको वत्र्त है। बहुरि आप तो उनको साधु न मानै अर अपने संघविष राखि औरनि पासि साधु मनाय औरनिको अश्रद्धानी करें, ऐसा कपट काहेको करै । बहुरि तुम जाको साधु न मानोगे तब अन्य जीवनिको भी ऐसा ही उपदेश करोगे, इनको साधु मति मानो, ऐसे धर्मपद्धति विष विरुद्ध होय। अर जाको तुम साधु मानो हो तिसते भी तुम्हारा विरुद्ध भया, जाते वह वाको साधु मानै है। बहुरि तुम जाकै यथार्थ आचरण मानो हो, सो विचारकार देखो, यह भी यथार्थ मुनि धर्म नाहीं पाले है। कोऊ कहे-अन्य भेषधारीनित तो घने अच्छे हैं तातें हम मान हैं। सो अन्यमतीनि विष तो नाना प्रकार भेष सम्भवे, जाते तहाँ रागभावका निषेध नाहीं। इन जैनमतविष तो जैसा कह्या, तैसा ही भए साधु संज्ञा होय। यहाँ कोऊ कई-शील संयमादि पाले है, तपश्चरणादि करै हैं, सो जेता करै तितना ही भला है। ताका समाधान- यहु सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्या हुआ भला ही है। परन्तु प्रतिज्ञा तो बड़े धर्मकी करिए अर पालिए थोरा, तो तहाँ प्रतिज्ञामंगसे महापाप हो है। जैसे कोऊ उपवासकी प्रतिज्ञाकार एकबार भोजन करै तो वाकै बहुत बार भोजनका संयम होतें भी प्रतिज्ञाभंगते पापी कहिए। तैसे मुनिधर्मकी प्रतिज्ञाकरि कोई किंचित् धर्म न पालै, तो वाको शीलसंयमादि होते भी पापी ही कहिए। अर जैसे एकंतकी
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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