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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक -२८ हजार सागर है अर इलानियोदविर लाई पुगा पनि मात्र से यह अनंतकाल है। बहुरि इतरनिगोदतें निकसि कोई स्थावर पर्याय पाय बहुरि निगोद जाय ऐसे एकेन्द्रियपर्यायनिविषै उत्कृष्ट परिभ्रमणकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है। बहुरि जघन्य सर्वत्र एक अन्तर्मुहूर्त काल है। ऐसे घना तो एकेन्द्रिय पर्यायनिका ही घरना है। अन्य पर्याय पावना तो काकतालीय न्यायवत् जानना। या प्रकार इस जीवकै अनादिहीत कर्मबन्धनरूप रोग भया है। कर्मबन्धन रूप रोग से जीव की अवस्था अब इस कर्मवन्धनरूप रोग के निमित्तः जीव की कैसी अवस्था होय रही है सो कहिए है। प्रथम तो इस जीवका स्वभाव चैतन्य है सो सवनिका सामान्य-विशेष स्वरूपका प्रकाशनहारा है। जो उनका स्वरूप होय सो आपको प्रतिभास है, तिसही का नाम चैतन्य है। तहाँ सामान्यरूप प्रतिभासने का राम दर्शन है, विशेषरूप प्रतिभासने का नाम ज्ञान है। सो ऐसे स्वभावकार त्रिकालवर्ती सर्वगुणपर्यायसहित सर्व पदार्थनिको प्रत्यक्ष युगपत् विना सहाय देखे जाने ऐसी आत्माविषे शक्ति सदा काल है। परन्तु अनादिहीत ज्ञानावरण दर्शनावरण का सम्बन्ध है ताके निमित्तते इस शक्ति का व्यक्तपना होत नाहीं। तिन कर्मनिका क्षयोपशमते किंचित् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अर कदाचित् अवधिज्ञान पाइए है वा अक्षुदर्शन पाइए है अर कदाचित् चक्षुदर्शन व अवधिदर्शन भी पाइए है। सो इनिकी भी प्रवृत्ति कैसे है सो दिखाइए है। मतिमान की प्रवृत्ति सो प्रथम तो मतिज्ञान है सो शरीर के अंगभूत जे जीभ, नासिका, नयन, कान, स्पर्शन ए द्रव्यइन्द्रिय अर हृदयस्थान विषै आठ खड़ी का फूल्या कमल के आकार द्रव्यमन तिनके सहायहीत जानै है। जैसे जाकी दृष्टि मन्द होय सो अपने नेत्रकरि ही देखे है परन्तु चश्मा दीए ही देखें, बिना चश्मे के देख सके नाहीं। तैसे आत्मा का शान मन्द है सो अपने ज्ञानहीकरि जाने है परन्तु द्रव्यइन्द्रिय या मनका सम्बन्ध भए ही जाने, तिन बिना जानसकै नाहीं । बहुरि जैसे नेत्र तो जैसा का तैसा है अर चश्मा विष किछू दोष भया होय तो देखि सके नाहीं अथवा पोरा दोसै अथवा और का और दीसे,तैसे अपना क्षयोपशम तो जैसा का तैसा है अर द्रव्य इन्द्रिय वा मनके परमाणु अन्यथा परिणमै होय तो जान सके नाही, अथवा थोरा जाने अथवा औरका और जाने। जाते द्रव्यइन्द्रिय वा मनसप परमाणुनिका परिणमनकै अर मतिमानकै निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है सो उनका परिणमनके अनुसार जान का परिणमन होय है। ताका उदाहरण-जैसे मनुष्यादिककै बाल वृद्ध अवस्थाविषे द्रव्यइन्द्रिय वा मन शिथिल झेय सब जानपना भी शिथिल होय। बहुरि जैसे शीतकायु आदिके निमिससे स्पर्शनादि इन्द्रियनिके वा मनके परमाणु अन्यथा होय तब जानना न होय या थोरा जानना होय वा अन्यथा जानना होय। बहुरि इस ज्ञान अर बाह्य द्रव्यनिक मी निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध पाइए है। ताका उदाहरण- जैसे नेत्रइन्द्रियके अंधकार के परमाणु वा फूला आदिकके परमाणु वा पाषाणादिके परमाणु आदि आड़े आ जाएँ तो देखि न सके। बहुरि लाल कांच आड़ा आवै तो सब लाल ही दीसे, हरित कांच आड़ा आवै तो हरितही दीसे ऐसे अन्यथा जानना होय। बहुरि दूरवीन चश्मा इत्यादि
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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