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________________ दूसरा धिकार कालवी बन्ध्या अनेककालविषै वा अनेककालविणे बंधे एककालविर्षे उदय आवनेते काहू कालविषै तीव्र उदय आये तब ती कापाय होय तब तीन ही नवीनबन्ध होय । अर काहू कालविषै मन्द उदय आवै तव मन्द कषाव हले तक मन्द ही बाथ होय । बहुरि तिन तीव्रमंदकषायनिहीं के अनुसारि पूर्वबंधे कर्मनिका भी संक्रमणादिक र मेश्या या प्रकार अनादितै लगाय धाराप्रवाहरूप द्रव्यकम वा भावकर्म की प्रवृत्ति जाननी। शरीर की नोकर्म अवस्था और इसकी प्रवृत्ति बहुरि नामकर्म के उदयतै शरीर हो है सो द्रव्यकर्मवत् किंचित् सुख दुःखको कारण है। तातें र मोकन कहिए है। इहां नो शब्द ईषत् कषायवाचक जानना। सो शरीर पुद्गलपरमाणुनिका पिण्ड प्रत्यइन्द्रिय, द्रव्यभन, श्वासोश्वास अर वचन ए भी शरीर के अंग हैं सो ए भी पुद्गलपरमाणुनिके हि मायने है ऐसे में आर मायलहित सीप के एकक्षेत्रावगाहरूप बन्धान हो है सो शरीर - - साय जेती आयु की स्थिति होय तितने काल पर्यन्त शरीर का सम्बन्ध रहे है। बहुरि आयु yा तब तिस शरीर का सम्बन्ध छूटे है शरीर आत्मा जुदे-जुदे होय जाय है । बहुरि ताके अमर सपवित्र या दूसरे तीसरे चौथे समय जीव कर्मउदय के निमित्तत नवीन शरीर धरै है तहां भी अपने खानुपर्यन्त तसे ही सम्बन्ध रहे है, बहुरि मरण हो है तब तिसो सम्बन्ध छूट है। ऐसे ही पूर्व शरीर कामेड़ना नवीन शरीर का ग्रहण अनुक्रमः हुआ करै है। बहुरि यह आत्मा यद्यपि असंख्यातप्रदेशी है तपापि संकोचविस्तारशक्तिः शरीरप्रमाण ही रहे। विशेष इतना- समुद्घातहोते शरीरनै बाह्य भी आत्मा के प्रदेश फैले हैं। बहुर अंतराल समर्यावर्ष पूर्व शरीर छोड्याथा तिस प्रमाण रहे है। बहुरि इस शरीर के पलय अर मन तिन के सहायतै जीयकै जानपना की प्रवृत्ति हो है। बहुरि शरीर की अवस्था के अनुसार मोह के उदयते जीव सुखी-दुःखी हो है। बहुरि कबहूँ तो जीव की इच्छा के अनुसार शरीर प्रवर्त काहूँ शरीर की अवस्था के अनुसार जीव प्रयतॆ है। कबहूँ जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्ते है, पुद्गल स्यालय प्रवते है। ऐसे इस नोकर्म की प्रवृत्ति जाननी । नित्य निगोद और इतर निगोद . अनावित खगाय प्रथम तो इस जीव के नित्यनिगोद रूप शरीर का सम्बन्ध पाइये है। तहाँ के पार आयु पूर्ण भए मरि बहुरि नित्यनिगोद शरीरको धारै है बहुरि आयु पूर्ण भए मरि लिपिनोवारीको थारे है। याही प्रकार अनंतानंत प्रमाण लिए जीवराशि है सो अनःदितै तहां ही या की है। बहुरि तहाँते छै महीना अर आट समयविषै छैस्सै आठ जीय निकसै हैं ते निकसि बारे है। सो पृथ्वी, जल, अग्नि, पयन, प्रत्येकवनस्पतिरूप एकेन्द्रिय पर्यायनिविषै वा बेइनिय तोत्रिय इन्द्रियरूप पर्यायनिविधै वा नारक तिर्यच मनुष्य देवरूप पंचेन्द्रिय पर्यायनिविष भ्रमण करै है, बढी तहाँ कितक काल प्रमणकरि फिर निगोदपर्याय को पावै सो वाका नाम इतरनिगोद है। बहुरि तहां कितेककाल रहे तहां ते निकसि अन्य पर्यायनिविषे भ्रमण कर है। तहां परिभ्रमण करने का उत्कृष्ट काल पृथ्वी आदि स्थावरनिविष असंख्यात कल्पमात्र है अर द्वीन्द्रियादि पंचेन्द्रियपर्यंत त्रसनिविषै साधिक दोय Hit Hus.
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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