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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक --२६ भावों से कर्मों की पूर्वबद्ध अवस्था का परिवर्तन अब जे परमाणु कर्मरूप परिणमै तिनका यावत् उदयकान न आवै तावत् जीव के प्रदेशनिसों एकक्षेत्रादगाहरूप बंधान रहे है। तहां जीवभाव के निमित्तकरि केई प्रकृतिनिकी अवस्था का पलटना भी होय नाय हे। तहाँ केई अन्य प्रकृतिनिके परमाणु थे ते संक्रमणरूप होय अन्य प्रकृति के परमाणु होय जाय। बहुरि केई प्रकृतिनिकी स्थिति वा अनुभाग बहुत था सो अपकर्पण होयकरि थोरा हो जाय । बहुरि केई प्रतिनिकी स्थिति वा अनुभाग थारा था सा उत्कषण होयकार बहुत हो जाय । सो ऐसे पूर्व बंधे परमाणुनिकी भी जीवभावनिका निमित्त पाय अवस्था पलटै है अर निमित्त न बने तो न पलटै, जैसे के तैसे रहे। ऐसे सत्तारूप कर्म रहे हैं। कर्मों के फलदान में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बहुरि जब कर्मप्रकृतिनिका उदयकाल आवै तच स्वयमेव तिन प्रकृतिनिका अनुभाग के अनुसार कार्य वनै। कर्म तिनके कानिकों निपजावता नाहीं। याका उदयकाल आए वह कार्य स्वयं बने है। इतना ही निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध जानना । बहुरि जिस समय फल निपज्या तिसका अनन्तर समयविषै तिन कर्मरूप पुद्गलनिकै अनुभाग शक्ति के अभाब होनेतें कर्मवपना का अभाव हो है। ते पुद्गल अन्यपर्यायरूप परिणमै हैं। याका नाम सविपाक निर्जरा है। ऐसे समय-समय प्रति उदय होय कर्म खिर हैं। कर्मत्यपना नास्ति भए पीछे ते परमाणु तिस ही स्कंधविष रहो या जुड़े होइ जाहु किछू प्रयोजन रह्या नाहीं।। इहां इतना जानना- इस जीव के समय-समय प्रति अनन्त परमाणु बंधे हैं तहाँ एक समय विषे बंधे परमाणु ले आवाधाकाल छोड़ अपनी स्थिति के जेते समय होहिं तिन विप क्रमतें उदय आवै है। बहुरि बहुत समयनिविषै बंधे परमाणु जे एक समय विपै उदय आवने योग्य हैं ते एकदे होय उदय आर्य हैं। तिन सब परमाणुनिका अनुभाग मिले, जेता अनुभाग होय तितना फल तिस कालविष निपजै है। बहुरि अनेक समयनिधिषे बंधे परमाणु बंधसमयतें लगाय उदयसमय पर्यन्त कर्मरूप अस्तित्व को धरे जीवसो सम्बन्धरूप रहे हैं। ऐसे कमनिकी बंध उदय सत्त रूप अवस्था जाननी। तहाँ समय-समय प्रति एकसमयप्रवद्ध मात्र परमाणु बंधै है, एकसमयप्रबद्ध मात्र जिर है। ड्योढ़गुणहानिकरि गुणित समयप्रबद्ध मात्र सदा काल सत्ता रहे है। सो इन सबनिका विशेष आगे कर्मअधिकारविर्षे लिखेंगे तहाँ जानना । द्रव्यकर्म और भावकर्म का स्वरूप बहुरि ऐसे यह कर्म है सो 'माणुरूप अनन्त पुद्गलद्रव्यनिकरि निपजाया कार्य है ताते याका नाम ट्रव्यकर्म है। बहुरि मोह के निमित्ततें मध्यात्वक्रोधादिरूप जीय का परिणाम है सो अशुद्ध भावकरि निपजाया कार्य है तात याका नाम भावकर्म है । सो द्रव्यकर्म के निमित्त भावक होय अर भावकर्म के निमित्ततें द्रव्यकर्म का बन्ध होय । बहुरि द्रव्य मत मावकर्म, भावकर्मत द्रव्यकर्म, ऐसे ही परस्पर कारणकार्यभावकार संसारचक्रविषे परिभ्रमण हो है। इस ना विशेष जानना-तीव्र मन्द बन्ध होने वा संक्रमणादि होनेते वा एक
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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