SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - २५० करणानुयोग में दोष- कल्पना का निराकरण बहुरि केई जीव कहे हैं- करणानुयोगविषै गुणस्थान मार्गणादिक का वा कर्मप्रकृतिनिका कथन किया या त्रिलोकादिकका कथन किया, सो तिनको जानि लिया 'यहु ऐसे है', 'यहु ऐसे है, यामें अपना कार्य कहा सिद्ध भया? कै तो भक्ति करिए, के व्रत दानादि करिए, कै आत्मानुभवन करिए, इनतें अपना भला होय । ताको कहिए -- परमेश्वर तो वीतराग हैं। भक्ति किए प्रसन्न होयकरि किछु करते नाहीं । भक्ति करतैं मंदकषाय हो है, ताका स्वयमेव उत्तम फल हो है। सो करणानुयोग के अभ्यासविषै तिसतें भी अधिक मन्द कषाय होय सकै है, तातैं याका फल अति उत्तम हो है । बहुरि व्रतदानादिक तो कषाय घटाने के बा निमित्तका साधन हैं अर करणानुयोगका अभ्यास किए तहाँ उपयोग लागि जाय, तब रागादिक दूरि होय, सो यहु अंतरंग निमित्तका साधन है । तातैं यहु विशेष कार्यकारी है । प्रतादिक धारि अध्ययनादि कीजिए है । बहुरि आत्मानुभव सर्वोत्तम कार्य है । परन्तु सामान्य अनुभवविषै उपयोग थम्भ नाहीं अर न थम्मै तब अन्य विकल्प होय, तहाँ करणानुयोगका अभ्यास होय तो तिस विचारविषे उपयोगको लगावै । यहु विचार वर्तमान भी रागादिक घटावे है अर आगामी रागादिक घटावने का कारण है तातें यहाँ उपयोग लगावना । जीव कर्मादिकके नाना प्रकार करि भेद जानें, तिनविषै रागादिकरने का प्रयोजन नाहीं, तातैं रागादि बधै नाहीं । वीतराग होने का प्रयोजन जहाँ-तहाँ प्रगटे है, तातें रागादि मिटावने को कारण है। यहाँ कोऊ कहै - कोई तो कथन ऐसा ही है परन्तु द्वीप समुद्रादिकके योजनादि निरूपै तिनमें कहा सिद्धि है ? ताका उत्तर- तिनको जान किछु तिनविषै इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होय, तार्तें पूर्वोक्त सिद्धि हो है । बहुरि वह कई है - ऐसे है तो जिसतें किछु प्रयोजन नाहीं ऐसा पाषाणादिकको भी जाने तहाँ इष्ट अनिष्टपनो न मानिए है, सो भी कार्यकारी भया । ताका उत्तर- सरागी जीव रागादि प्रयोजनविना काहूको जानने का उद्यम न करै । जो स्वयमेव उनका जानना होय तो अंतरंग रागादिकका अभिप्रायके वशकरि तहाँतें उपयोग को छुड़ाया ही चाहे है। यहाँ उद्यमकरि द्वीप - समुद्रादिकको जाने है तहाँ उपयोग लगावै है । सो रागादि घटे ऐसा कार्य होय । बहुरि पाषाणादिकविषै इस लोक का कोई प्रयोजन भासि जाय तो रागादिक होय आये। अर द्वीपादिकविषै इस लोक सम्बन्धी कार्य किछु नाहीं तातें रागादिकका कारण नाहीं । जो स्वर्गादिककी रचना सुनि तहाँ राग होय तो परलोक सम्बन्धी होयताका कारण पुण्यको जाने तब पाप छोड़ पुण्यविषै प्रवर्त्ते, इतना ही नफा होय । बहुरि द्वीपादिकके जाने यथावत् रचना भासै तब अन्यमतादिकका का झूठ भासे, सत्य श्रद्धानी होय । बहुरि यथावत् रचना जानने करि भ्रम मिटे उपयोगकी निर्मलता होय, तार्तें यह अभ्यास कार्यकारी है। बहुरि केई कहे हैं- करणानुयोगविषै कठिनता घनी, तातैं ताका अभ्यासविषै खेद होय । ताको कहिए है जो वस्तु शीघ्र जानने में आयें, तहाँ उपयोग उलझे नाहीं अर जानी वस्तुको
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy