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________________ आठवाँ अधिकार-२५१ बारम्बार जानने का उत्साह होय नाहीं, तब पापकार्यनिविषै उपयोग लगि जाय। तातें अपनी बुद्धि अनुसारि कठिनताकरि भी जाका अभ्यास होता जानै ताका अभ्यास करना। अर जाका अभ्यास होय ही सकै नाही, ताका कैसे करे? बहुरि तू कहै है-खेद होय सो प्रमादी रहने में तो थर्म है नाहीं। प्रमादः सुखिया रहिए, तहाँ तो पाप ही होय । तातें धर्म के अर्थ उद्यम करना ही युक्त है। या विचार करणानुयोगका अभ्यास करना। चरणानुयोग में दोष-कल्पना का निराकरण बहुरि केई जीय ऐसे कहै है- चरणानुयोगविषै बाह्य व्रतादि साधनका उपदेश है, सो इनित किछु सिद्धि नाहीं। अपने परिणाम निर्मल चाहिए, बाह्य चाहो जैसे प्रवर्तो । ताइस उपदेशः पराङ्मुख रहै हैं। तिनको कहिए है- आत्मपरिणामनिकै और बाह्य प्रवृत्तिकै निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जाते छद्मस्थक क्रिया परिणामपूर्वक हो है। कदाचित् बिना परिणाम कोई क्रिया हो है, सो परवशते हो है। अपने वशः उद्यमकरि कार्य करिए अर कहिए परिणाम इस रूप नाहीं है, सो यहु भ्रम है। अथवा बाह्य पदार्थ का आश्रय पाय परिणाम होय सके हैं। तातें परिणाम मेटने के अर्थ बालवस्तुका निषेध करना समयसारादिविषै कया है। इसही वास्ते रागादिभाव घटै बाह्य ऐसे अनुक्रमः श्रावक मुनिधर्म होय। अथवा ऐसे श्रावक मुनिधर्म अंगीकार किए पंचम षष्टमआदि गुणस्थान तिनिविषे रागादि घटनेरूप परिणामनिकी प्राप्ति होय। ऐसा निरूपण चरणानुयोगविष किया। बहुरि जो बाह्य संयमतें किछु सिद्धि न होय, तो सर्वार्थसिद्धि के वासी देव सम्यग्दृष्टी बहुतज्ञानी तिनकै तो चौथा गुणस्थान होय अर गृहस्थ श्रावक मनुष्यकै पंचम गुणस्थान होय, सो कारण कहा? बहुरि तीर्थकरादिक गृहस्थपद छोड़ि काहेको संयम ग्रहैं। तात यहु नियम है- बाम संयम साधनविना परिणाम निर्मल न होय सके हैं तातै बाह्य साधनका विथान जाननेको चरणानुयोगका अभ्यास अवश्य किया चाहिए। द्रव्यानुयोग में दोष-कल्पना का निराकरण बहुरि केई जीव कहै हैं - जो द्रव्यानुयोगविष व्रत संयमादि व्यवहारधर्मका हीनपना प्रगट किया है। सम्यग्दृष्टीके विषय-भोगादिकको निर्जराका कारण कह्या है। इत्यादि कथन सुनि जीव हैं, सो स्वच्छन्द होय पुण्य छोड़ि पापविषे प्रवर्ते, ताः इनिका वांचना सुनना युक्त नाहीं । ताको कहिए है- जैसे गर्दभ मिश्री खार मरै, तो मनुष्य तो मिश्री खाना न छोड़े। तैसे विपरीतबुद्धि अध्यात्मग्रन्थ सुनि स्वच्छन्द होय, तो विवेकी तो अध्यात्मग्रन्थनिका अभ्यास न छोड़े। इतना करै-जाको स्वच्छन्द होता जाने, ताको जैसे वह स्वच्छन्द न होय, तैसे उपदेश दे बहुरि अध्यात्मग्रन्थनिविषै भी स्वच्छन्द होने का जहाँ तहाँ निषेध कीजिए है, तातें जो नीके तिनको सुनै, सो तो स्वच्छन्द होता नाहीं। अर एक बात सुनि अपने अभिप्रायते कोऊ स्वच्छन्द होसी, तो ग्रन्थका तो दोष है नाही, उस जीवहीका दोष है। बहुरि जो झूठा दोषकी कल्पनाकार अध्यात्मशास्त्रका वांचना सुनना निषेथिए तो मोक्षमार्गका मूल उपदेश तो तहाँ ही है। ताका निषेध किए मोक्षमार्गका निषेध होय । जैसे पेघवर्षा भए बहुत जीवनिका कल्याण होय अर काहूकै उलटा टोटा पड़े, तो तिसकी मुख्यताकरि
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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