SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा अधिकार-३३ है सात कर्महीका निमित्त जानना। जैसे काहूकै अंथकार के परमाणु आड़े आए देखना न होय, घूघू मार्जारादिकनिकै तिनको आड़े आये भी देखना होय। सो ऐसा यहु क्षयोपशमहीका विशेष है। जैसे-जैसे अयोपशम होय तैसे-तैसे ही देखना जानना होय। ऐसे इस जीवकै क्षयोपशमज्ञानकी प्रवृत्ति पाइए है। बहुरि बमार्गविष अवधि मनःपर्यय हो है ते भी क्षयोपशमज्ञान ही है, तिनिकी भी ऐसे ही एक कालविषै एकको प्रतिभासमा वा परद्रव्यका आधीनपना जानना। बहुरि विशेष है सो विशेष जानना। या प्रकार ज्ञानावरण पर्शनावरणका उदयके निमित्ततें बहुत ज्ञानदर्शनके अंशनि का तो अभाव है अर तिनके क्षयोपशमतें थोरे मासिका सद्भाव पाइए है। मोह का उदय और मिथ्यात्व का स्वरूप बहुरि इस जीवकै मोह के उदयतें मिथ्यात्व वा कषायभाव हो है। तहाँ दर्शनमोहके उदयतें तो मिथ्यात्वमाव हो है साकरि यह जीव अन्यथा प्रतीतिरूप अतत्त्व श्रद्धान करै है। जैसे है तैसे तो न मानै है। अर जैसे नाहीं है तैसे माने है। अमूर्तीक प्रदेशनिका पुंज प्रसिद्ध ज्ञानादिगुणनिका धारी अनादिनिधनवस्तु आप है अर मूर्तीक पुद्गल पनि मिंड प्ररित सानापिकनिहरे रहित जिनका नदीन संयोग भया, ऐसे शरीरादिक पुद्गल पर हैं। इनका संयोगरूप नाना प्रकार मनुष्य तिर्यंचादि पर्याय हो है, तिस पर्यायविषै अईबुद्धि थारै है, स्व-परका भेद नाहीं करि सके है। जो पर्याय पाव तिसहीको आप मान है। बहुरि तिस पापविध जानादिक हैं ते तो आपके गुण हैं अर रागादिक हैं ते आपके कर्मनिमित्त उपाधिक भाव भए ३ अर वर्णादिक हैं ते आपके गुण नाहीं हैं, शरीरादिक पुद्गलके गुण हैं अर शरीरादिकविषै वर्णादिकनिकी 'या परमाणुनिकी नाना प्रकार पलटनि हो है सो पुद्गल की अवस्था है सो इन सबनिहीको अपनो स्वरूप बने है, स्वभाव परभावका विवेक नाहीं होय सके है। बहुरि मनुष्यादिक पर्यायनिविषे कुटुम्ब धनादिकका सम्बन्ध हो है, ते प्रत्यक्ष आपसे भिन्न हैं अर ते अपने आधीन होय नाही परिणमैं हैं तथापितिन विषै मार कर है। "ए मेरे है। वे काहू प्रकार भी अपने होते नाहीं, यह ही अपनी मानि से ही अपने माने है हर मनुष्यादि पर्यायनिविष कदाचित् देवादिकका वा तत्त्वनिका अन्यथास्वरूप जो कल्पित किया ताकी तो प्रतीति कर है अर यथार्थस्वरूप जैसे है तैसे प्रतीति न करै है। ऐसे दर्शनमोह के उदय करि जीवके अतत्वानरूप मिथ्यात्वभाव हो है। जहाँ तीव्र उदय होय है तहाँ सत्यश्रद्धानते घना विपरीत श्रद्धान होय . है। जब मंद उदय होय है तब सत्य श्रद्धाननै थोरा विपरीत श्रद्धान हो है। चारित्रमोह से कषायभावों की प्रवृत्ति बहुरि चारित्रमोहके उदयतें इस जीवकै कषायभाव हो है तब वह देखता जानता संता पर पदार्थनिविष इष्ट अनिष्टपनो मानि क्रोधादिक करै है तहां क्रोधका उदय होते पदार्थनिविषै अनिष्टपनो वा ताका बुरा थाहै। कोउ मंदिरादि अचेतन पदार्थ बुरा लागै तब फोरना-तोरना इत्यादि रूपकरि वाका बुरा पाहै। बहुरि शत्रु आदि सवेतन पदार्थ बुरा लागै तब वाकों बध-बन्धादिकार वा मारनेकरि दुःख उपजाय ताका बुरा चाहै। बहुरि आप वा अन्य सचेतन अचेतन पदार्थ कोई प्रकार परिणए, आपको सो परिणमन
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy