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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-३४ बुरा लागे ना अन्यया पीणमावनेकरि तिस परिणमनका बुरा चाहै। या प्रकार क्रोधकरि बुरा चाहनेकी इच्छा तो होय, बुरा होना भवितव्य आधीन है। बहुरि मानका उदय होते पदार्थविषै अनिष्टपनो मानि ताको नीचा किया चाहै, आप ऊँचा भया चाहै, मल धूलि आदि अचेतन पदार्थनिविषै घृणा वा निरादरादिककरि तिनकी हीनता, आपकी उच्चता चाहै। बहुरि पुरुषादिक सचेतन पदार्थनिकों नमावना, अपने आधीन करना इत्यादि सपकार तिनकी हीनसा, आपकी उच्चता चाहै। बहुरि आप लोकविषै जैसे ऊँचा दीसै तैसे शृंगारादि करना वा धन खरचना इत्यादिरूपकरि औरनिकों हीन दिखाय आप ऊँचा हुआ चाहै। बहुरि अन्य कोई आपत ऊँचा कार्य करै ताको कोई उपाय करि नीचा दिखावै अर आप नीचा कार्य कर ताळू ऊंचा दिखावे; या प्रकार मानकर अपनी महंतताकी इच्छा तो होय, महंतता होनी भवितव्य आधीन है। बहुरि मायाका उदय होतें कोई पदार्थको इष्ट मानि नाना प्रकार छलनिकरि ताको सिद्ध किया चाहै । रत्न सुवर्णादिक अचेतन पदार्थनिकी वा स्त्री दासी - दासादि सचेतन पदार्थनिकी सिद्धिके अर्थि अनेक छल करै। परको ठगनेके अर्थि अपनी अनेक अवस्था करे या अन्य अचेतन सचेतन पदार्थनिकी अवस्था पलटायै इत्यादिरूप छलकार अपना अभिप्राय सिद्ध किया चाहै। या प्रकार मायाकरि इष्टसिद्धिके अर्थि छल तो करै अर इष्टसिद्धि होना भवितव्य आधीन है। बहुरि लोभका उदय होते पदार्थनिकों इष्ट मानि तिनकी प्राप्ति चाहै। वस्त्राभरण थनधान्यादि अचेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय। बहुरि स्त्री पुत्रादिक चेतन पदार्थनिकी तृष्णा होय । बहुरि आपकै वा अन्य सचेतन अचेतन पदार्थक कोई परिणमन होना इष्ट मानि तिनको तिस परिणमनरूप परिणमाया चाहै। या प्रकार लोभकार इष्टप्राप्ति की इच्छा तो होय अर इष्ट प्राप्ति होनी भवितव्य के आधीन है। ऐसे क्रोधादिकका उदयकरि आत्मा परिणमै है। कषायों के उत्तरभेद और उनका कार्य तहां एक-एक कषाय का चार-चार प्रकार है। अनंतानुबन्थी ,, अप्रत्याख्यानावरण २, प्रत्याख्यानावरण ३, संज्वलन ४। तहाँ (जिनका उदयतें आत्माकै सम्यक्त्व न होय, स्वरूपाचरण चारित्र न होय सकै ते अनंतानुबंधीकषाय हैं) विशेष-टोडरमलजी की हस्तलिखित प्रति में उन्होंने ऐसा नहीं लिखा है कि- "जिनका उदय आत्मा के सम्यक्त्व न होय, स्वरूपाचरण चारित्र न होय सके ते अनन्तानुबन्धी कषाय हैं।" फिर भी हमने यहाँ इस पाट को इसलिए दिया है कि चूंकि श्रद्धेय पण्डित सा. यहाँ अनन्तानुबन्धीकी परिभाषा लिखना भूल गये थे तथा लिपिकारों ने बाद में उक्त शब्दों में इसे सम्मिलित किया था अतः हमने भी ऐसा ही रहने दिया है। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पण्डित राजमलजी के पूर्व * यह पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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