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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-४० तैसे नाही प्रवते है, अन्यथा प्रवृत्ति हो है। ऐसे ये मिथ्यादर्शनादिक हैं तेई सर्व दुःखनि के मूल कारण हैं। कैसे? सो दिखाइये है मिध्यात्य का प्रभाव मिथ्यादर्शनादिककरि जीवकै स्व-पर-विवेक नाही होइ सकै है, एक आप आत्मा अर अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर इनका संयोगरूप मनुष्यादिपर्याय निपजै है तिस पर्यायहीको आपो मान है। बहुरि आत्माका ज्ञानदर्शनादि स्वभाव है ताकरि किंचित् जानना देखना हो है। अर कर्मउपाधिते भए क्रोधादिक भाव तिनरूप परिणाम पाइए है। बहुरि शरीरका स्पर्श रस गन्ध वर्ण रवभाव है सो प्रगट है अर स्थूल कृशादिक होना वा स्पर्शादिकका पलटना इत्यादि अनेक अवस्था हो है। इन सबनिको अपना स्वरूप जाने है। तहाँ ज्ञानदर्शनकी प्रवृत्ति इन्द्रिय मनके द्वारे हो है तातें यह मान है कि ए त्वचा जीभ नासिका नेत्र कान मन ये मेरे अंग हैं। इनकरि मैं देखू जानू हूँ, ऐसी मानिता त इन्द्रियनिविष प्रीति पाइए है। मोहजनित विषयाभिलाषा बहरि मोहके आवेशते तिन इन्द्रियनिके द्वारा विषय ग्रहण करनेकी इच्छा हो है। बहरि तिनविषयनिका ग्रहण भए तिस इच्छा के मिटनेते निराकुल हो है, तब आनन्द माने है। जैसे कूकरा हाड़ चाबै ताकार अपना लोही निकसै ताका स्वाद लेय ऐसा मानै, यह हाड़निका स्वाद है। तैसे यह जीव विषयांनको जानै ताकरि अपना ज्ञान प्रवर्त, ताका स्वाद लेय ऐसे माने, यहु विषयका स्वाद है सो विषयमें तो स्वाद है नाहीं। आप ही इच्छा करी थी ताको आप ही जानि आप ही आनन्द मान्या परन्तु मैं अनादि अनंतज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ ऐसा निःकेवलज्ञानका तो अनुभव है नाहीं। बहुरि मैं नृत्य देख्या, राग सुन्या, फूल सूध्या, पदार्थ स्पश्या, स्वाद जान्या तथा मोको यह जानना, इस प्रकार ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका अनुभव है ताकरि विषयनिकरि ही प्रधानता भासे है। ऐसे इस जीय के मोहके निमित्तते विषयनिकी इच्छा पाइए है। शक्तिहीनता से इच्छानुसार विषय न भोग सकने से दुःख सो इच्छा तो त्रिकालवर्ती सर्वविषयनिके ग्रहण करनेकी है। मैं सर्वको स्पर्श, सर्वकू स्वादूँ, सर्वकू सूंघे, सर्वको देखू, सर्वको सुन, सर्वको जानूं, सो इच्छा तो इतनी है अर शक्ति इतनी ही है जो इन्द्रियनिके सम्मुख भया वर्तमान स्पर्श रस गन्ध वर्ण शब्द तिनविष काहूकू किंचिन्मात्र ग्रहै वा स्मरणादिकतै मनकरि किछु जानै सो भी बाह्य अनेक कारन मिले सिद्धि होय । तातै इच्छा कबहूँ पूर्ण होय नाहीं। ऐसी इच्छा तो केवलमान भए सम्पूर्ण होय। क्षयोपशमरूप इन्द्रियकरि तो इच्छा पूर्ण होय नाहीं तातै मोह के निमित्तः इन्द्रियनिकै अपने-अपने विषय-ग्रहणकी निरन्तर इच्छा होवो ही करे ताकार आकुलित हुया दुःखी हो रह्या है ऐसा दुःखी होय रखा है जो एक कोई विषयका ग्रहणके अर्थि अपना भरनको भी नाहीं गिनै है। जैसे हाधीकै कपटकी हथनीका शरीर स्पर्शनेकी अर पच्छकै बड़सीकै लाग्या मांस स्वादनेकी अर भ्रमरकै कमलसुगन्ध सूंघनेकी अर पतंग के दीपकका वर्ण देखनेकी अर हिरणकै राग सुनने की इच्छा ऐसी हो है जो तत्काल मरना मासै तो भी मरनको गिनै नाहीं, विषयनिका ग्रहण करै, जाते मरण होने” इन्द्रियनिकरि
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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