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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०८ मीमांसकमत निराकरण अब मीमांसक मत का स्वरूप कहिए है। मीमांसक दोय प्रकार हैं-ब्रह्मवादी, कर्मवादी। तहाँ ब्रह्मवादी तो सर्व यहु ब्रह्म है, दूसरा कोई नाहीं ऐसा वेदान्तविष अद्वैत ब्रह्मको निरूपै हैं। बहुरि आत्माविषै लय होना सो मुक्ति कहै हैं। सो इनिका मिध्यापना पूर्व दिखाया है सो विचारना । बहुरि कर्मवादी क्रिया आचार यज्ञादिक कार्यनिका कर्तव्यपना प्ररूपै हैं सो इन क्रियानिविषे रागादिकका सभाय पाइए है, ताते ए कार्य किछू भावारी हैं नाहीं : बहु हाँ हर प्रकार' करि करी हुई दोय पद्धति है। तहाँ भट्ट तो छह प्रमाण माने हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, वेद, उपमा, अर्थापत्ति, अभाव । बहुरि प्रभाकर अभाव बिना पाँच ही प्रमाण माने है। सो इनिका सत्यासत्यपना जैनशास्त्रनितें जानना। बहुरि तहाँ षट्कर्मसहित ब्रह्मसूत्रके धारक शूद्रका अन्नादिके त्यागि ते गृहस्था श्रम है नाम जिनिझा ऐसे भट्ट हैं। बहुरि वेदान्तविष यज्ञोपवीतरहित विप्र अन्नादिक के ग्राही, भगवत् है नाम जिनका ऐसे च्यारि प्रकार हैं-कुटीचर, बहूदक, हंस, परमहंस। सो ए किछू त्यागकरि सन्तुष्ट भए हैं परन्तु ज्ञान श्रद्धानका निध्यापना अर रागादिकका सद्भाव इनके पाइए है। ताते ए भेष कार्यकारी नाहीं। जैमिनीयमत निराकरण बहुरि यहाँ ही जैमिनीयमत सम्भबै है, सो ऐसे कहै है सर्वज्ञदेव कोई है नाहीं । नित्य वेद वचन हैं, तिनित यथार्थ निर्णय हो है। तातै पहले वेदणठकार क्रिया प्रति प्रवर्त्तना सो तो नोदना (प्रेरणा) सोई है लक्षण जाका ऐसा धर्म, ताका साथन करना। जैसे कहे हैं "स्वः कामोऽग्नि यजेत्” स्वर्ग अभिलाषी अग्निके पूजे, इत्यादि निरूपण करै है। यहाँ पूछिए है- शैव, सांख्य, नैयायिकादिक सब ही वेदको मान हैं, तुम भी मानो हो। तुम्हारे वा उन सबनिकै तत्त्वादि निरूपणविषै परस्पर विरुद्धता पाइए है सो है कहा? जो वेद ही विषै कहीं किछू कहीं किछू निरूपण है तो वाकी प्रमाणता कैसे रही । अर जो मतवाले ही कहीं किछू कहीं किछू निरूपण करै है तो तुम परस्पर झगरिनिर्णय करि एकको वेदका अनुसारी अन्यको वेदत पराङ्मुख ठहरावो। सो हमको तो यहु भासै है, वेदहीविषे पूर्यापर विरुद्धतालिए निरूपण है। तिसते ताका अपनी-अपनी इच्छानुसारि अर्थ प्रहण करि जुदे-जुदे मतके अधिकारी भए हैं। सो ऐसे वेदको प्रमाण कैसे कीजिए है। बहुरि अग्नि पूजे स्वर्ग होय, सो अग्नि मनुष्यते उत्तम कैसे मानिए? प्रत्याविरुद्ध है। बहुरि कह स्वर्गदाता कैसे होय। ऐसे ही अन्य वेदवचन प्रमाणविरुद्ध हैं। बहुरि वेदविष ब्रह्मा कहा है, सर्वज्ञ कैसे न माने है। इत्यादि प्रकारकरि जैमिनीय मत कल्पित जानना। विशेष-अज्ञानी लोगों के द्वारा पूजी जाने वाली अग्नि (जिसे वे देवता कहते हैं) लोहे के पिण्ड के संसर्ग से घनों द्वारा पीटी जाती है, नीचे रखे हुए अहरन (निहाई) के ऊपर धन की चोट, संडासी से खींचना, चोट लगने से टूटना इत्यादि दुःखों को सहती है। (परमात्मप्रकाश २/११४ पृ. २३४ रायचन्द्र शास्त्रमाला) कहा भी है- 'अग्नि सहे घनघात, लोह की संगति पाई' ऐसी अग्नि पूज्य कैसे हो सकती है?
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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