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________________ खड़ी बोली में रूपान्तरण : मोक्षमार्ग-प्रकाशक की मूल भाषा ढूंढारी राजस्थान के एक छोटे से भू-भाग की भाषा है। पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में उस भाषा में कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। हिन्दी का क्षेत्र बहुत बड़ा है और किसी भी ग्रन्थ को ढूंढारी की अपेक्षा प्रचलित हिन्दी या खड़ी बोली में पढ़ना-समझना अधिकाधिक पाठकों के लिए अधिक से अधिक आसान होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर इस उपयोगी ग्रन्थ को खड़ी बोली में रूपान्तरित करके प्रस्तुत करने की आवश्यकता का अनुभव किया गया। 1897 में बाबू ज्ञानचन्दजी जैनी ने जिसका मंगलाचरण किया था, रूपान्तरण का वह कार्य, पचास वर्ष के बाद 1947 में पहली बार सामने आया। सर्वप्रथम पमारी (आगरा) निवासी पण्डित लालबहादुरजी शास्त्रीने 1942 में मोक्षमार्गप्रकाशक के भाषा-रूपान्तरण का कार्य हाथ में लिया जिसे उन्होंने दो वर्ष के कठोर परिश्रम से 1944 में समाप्त कर लिया। परन्तु उसका प्रकाशन भारतवर्षीय दिगम्बर जैनसंघ, चौरासी मथुरा द्वारा सन् 1948 में, जैन संघ ग्रन्थमाला के दूसरे पुष्प के रूप में सम्भव हुआ। पण्डित लालबहादुरजी शास्त्री ने इस कार्य में बहुत परिश्रम किया। उन्होंने श्री नाथूरामजी प्रेमी द्वारा 1911 में प्रकाशित प्रति को ही मानक प्रति जनाकर कार्य किया। कोई प्राचीन हस्तलिखित प्रति उन्हें उपलब्ध नहीं हो सकी। शास्त्रीजी को श्री प्रेमीजी से इस कार्य में मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। पं. परमानन्दजी से उन्हें सहयोग प्राप्त हुआ तथा पं. कैलाशचन्द जी शास्त्री का कार्य-निष्पादन में सर्वोपरि योगदान रहा। मथुरा संघ से प्रकाशित संस्करण में ग्रन्थ को अधुनातन सम्पादकीय पद्धति तथा मुद्रण पति से संवारकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया था। उस समय तक ग्रन्थ के पाँच विभिन्न संस्करण सम्पादक के समक्ष थे। मूल हस्तलिखित प्रतियों में तो अल्प-विराम और पूर्ण-विराम लगाने का प्रचलन ही नहीं था। पैरा भी कहीं कदाचित् ही दर्शाये जाते थे। विषयवार शीर्षक और उपशीर्षक भी नहीं होते थे। पूरे ग्रन्थ में विषयवार शीर्षक/उपशीर्षक देने का कार्य 1911 में प्रेमीजी ने कर लिया था, परन्तु वे सारे शीर्षक ग्रन्थ की सूची में ही दिये गये थे। ग्रन्ध के पृष्ठों पर कोई शीर्षक नहीं थे। पण्डित लालबहादुरजी ने प्रेमीजी द्वारा सूचित शीर्षकों का भरपूर लाभ उठाया और उन्हें कुछ और संवार कर ग्रन्थ में ही यथास्थान जोड़ दिया। इससे पाठकों को बहुत सुभीता हुआ। पण्डित टोडरमलजी ने मतान्तरों के खण्डन में जगह-जगह उनकी मान्यताओं का उल्लेख तो किया था परन्तु उनके स्रोत स्पष्ट नहीं किये थे। पण्डित लालबहादुरजी ने उन सभी स्थलों को खोज कर ग्रन्थ-प्रकरण-अध्याय और श्लोक सहित उनके संदर्भ अंकित कर दिये और पूरे-पूरे उद्धरण भी सामने ला दिये। यह बहुत परिश्रम-साध्य कार्य था। शास्त्रीजी ने ग्रन्थ के अन्त में विस्तृत परिशिष्ट देकर भी एक बड़ा कार्य किया। परिशिष्ट को दो भागों में विभक्त करके प्रस्तुत किया गया है। पहले भाग में ग्रन्थ के विशेष-स्थलों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है और दूसरे भाग में वे कथाएँ प्रस्तुत की गई हैं
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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