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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४६ वैराग्य को कारण आत्मानुभवनादिक ताकी महिमा गाइए है । बहुरि द्रव्यानुयोग विषे निश्चय अध्यात्म उपदेश की प्रधानता होय, तहाँ व्यवहारधर्म का भी निषेध कीजिए है। जे जीव आत्मानुभवन के उपायको न करें हैं अर बाह्य क्रियाकांडविषे मग्न हैं, तिनको तहाँतै उदासकरि आत्मानुभवनादिविष लगावने को व्रत शील संयमादिक का हीनपना प्रगट कीजिए है। तहाँ ऐसा न जानि लेना, जो इनको छोड़ि पापविष लगना। जाते तिस उपदेश का प्रयोजन अशुभविषै लगावने का नाही है। शुद्धोपयोगविष लगावने को शुभोपयोग का निषेध कीजिए है। यहाँ कोऊ कहे कि अध्यात्म-शास्त्रनिविषै पुण्य-पाप समान कहे हैं, तातें शुद्धोपयोग होय तो भला ही है, न होय तो पुण्यविषे लगो वा पापविषै लगो। ताका उत्तर- जैसे शूद्रजातिअपेक्षा जाट चांडाल समान कहे परन्तु चांडालते जाट किछू उत्तम है। वह अस्पृश्य है, यह स्पृश्य है। तैसे बन्धकारण अपेक्षा पुण्य-पाप समान हैं परन्तु पापते पुण्य किछू भला है। वह सीव्रकषायरूप है, यह मंदकषायरूप है तातै पुण्य छोड़ि पापविषै लगना युक्त नाहीं, ऐसा जानना। ___ बहुरि जे जीव जिनबिम्बभक्त्यादि कार्यनिविषै ही मग्न हैं, तिनको आत्मश्रद्धानादि करावने को "देहविष देव है, देहुराविषे नाही" इत्यादि उपदेश दीजिए है। तहाँ ऐसा न जानि लेना, जो भक्ति छुड़ाय भोजनादिकतें आपको सुखी करना। आशलिस उपदेश का प्रयोजन ऐसा नहीं है। ऐसे ली अन्य व्यवहारका निषेध तहाँ किया होय,ताको जानि प्रमादी न होना। ऐसा जानना-जे केवल व्यवहार साधनविष ही मग्न हैं, तिनको निश्चयरुचि करावने के अर्थि व्यवहारको हीन दिखाया है। बहुरि तिन ही शास्त्रनिविष सम्यग्दृष्टीके विषय-भोगादिकको बंधका कारण न कह्या, निर्जरा का कारण कह्या । सो यहाँ भोगनिका उपादेयपना न जानि लेना। तहाँ सम्यग्दृष्टिकी महिमा दिखावने को जे तीव्रबंध के कारण भोगादिक प्रसिद्ध थे, तिन भोगादिक को होतेसंते भी श्रद्धानशक्ति के बलते निर्जरा विशेष होने लगी, तात उपचार भोगनिको भी बंथका कारण न कह्या, निर्जरा का कारण कह्या। विचार किए भोग निर्जराके कारण होय, तो तिनको छोड़ि सम्यग्दृष्टी मुनिपदका ग्रहण काहेको करे? यहाँ इस कथन का इतना ही प्रयोजन है-देखो, सम्यक्त्वकी महिमा जाके बलते भोग भी अपने गुणको न करि सकै है। याही प्रकार और भी कथन होय ताका यथार्थपना जानि लेना। बहुरि द्रव्यानुयोगविषै भी चरणानुयोगवत् ग्रहण-त्याग करावनेका प्रयोजन है। तातें छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामनिकी अपेक्षा ही तहाँ कथन कीजिए है। इतना विशेष है, जो चरणानुयोगविषै तो बाह्यक्रिया की मुख्यताकरि वर्णन करिए है, द्रव्यानुयोगविषै आत्मपरिणामनिकी मुख्यताकरि निरूपण कीजिए है। बहुरि करणानुयोगवत् सूक्ष्मवर्णन न कीजिए है। ताके उदाहरण कहिए है उपयोग के शुभ, अशुभ, शुद्ध ऐसे तीन भेद कहे। तहाँ धर्मानुरागरूप परिणाम सो शुभोपयोग अर पापानुरागरूप वा द्वेषरूप परिणाम सो अशुभोपयोग अर रागद्वेषरहित परिणाम सो शुद्धोपयोग, ऐसे कह्या सो इस छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामनिकी अपेक्षा यह कथन है। करणानुयोगविषै कापयशक्ति अपेक्षा गुणस्थानादिविष संक्लेश विशुद्ध परिणाम अपेक्षा निरूपण किया है सो विवक्षा यहाँ नाहीं है। करणानुयोगविषै
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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