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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१७६ __ परीक्षारहित आज्ञानुसारी जैनत्व का प्रतिषेध बहुरि केई आज्ञानुसारि जैनी ही हैं। जैसे शास्त्रविषै आज्ञा है तैसे मान हैं परन्तु आज्ञाकी परीक्षा करते नाहीं। सो आज्ञा ही मानना धर्म होय तो सर्व मतवाले अपने-अपने शास्त्रकी आज्ञा मानि धर्मात्मा होय। तातै परीक्षाकरि जिनवचननिको सत्यपनो पहिचानि जिन आज्ञा माननी योग्य है। बिना परीक्षा किए सत्य-असत्यका निर्णय कैसे होय? अर बिना निर्णय किये जैसे अन्यमती अपने शास्त्रनिकी आज्ञा माने हैं, तैसे याने जैनशास्त्रनिकी आज्ञा मानी। यह तो पक्षकरि आज्ञा मानना है। कोऊ कद, शास्त्रविषै दश प्रकार सम्यक्त्वविषै आज्ञा सम्यक्त्व कह्या है वा आज्ञाविचय धर्मध्यानका भेद कह्या है वा निःशंकित अंगविषै जिनवचनविषै संशय करना निषेध्या है, सो कैसे है? ___ताका समाधान- शास्त्रनिविषै कथन केई तो ऐसे हैं, जिनकी प्रत्यक्ष अनुमानादिकरि परीक्षा करि सकिए है। बहुरि केई कथन ऐसे हैं, जो प्रत्यक्ष अनुमानादि गोचर नाहीं । तातै आज्ञा ही करि प्रमाण होय हैं। तहाँ नाना शास्त्रनिविषे जे कथन समान होय, तिनकी तो परीक्षा करनेका प्रयोजन ही नाहीं। बहुरि जो कथन परस्पर विरुद्ध होई, तिनिविषै जो कथन प्रत्यक्ष अनुमानादि गोचर होय, तिनकी तो परीक्षा करनी। तहाँ जिनशास्त्र के कथन की प्रमाणता ठहरै, तिनि शास्त्रविषे जे प्रत्यक्ष अनुमान गोचर नाहीं ऐसे कथन किए होय, तिनको भी प्रमाणता करनी। बहुरि जिन शास्त्रनिके कथनकी प्रमाणता न ठहरै, तिनके सर्वहू कथनकी अप्रमाणता माननी। ___ इहाँ कोऊ कहै- परीक्षा किए कोई कथन कोई शास्त्रविषै प्रमाण भासै, कोई कथन कोई शास्त्रविर्ष प्रमाण भासै तो कहा करिए? ताका समाधान- जो आप्तके भाषे शास्त्र हैं, तिनिविषे कोई ही कथन प्रमाण-विरुद्ध न होय। जाते कै तो जानपना ही न होय, के रागद्वेष होय तो असत्य कहै । सो आप्त ऐसा होय नाहीं, तातै परीक्षा नीकी नाही करी है, तातै भ्रम है। बहुरि वा कई है- छद्मस्थकै अन्यथा परीक्षा होय जाय तो कहा करे? ताका समाधान- सांची झुंटी दोऊ वस्तुनिको मीड़े अर प्रमाद छोड़ेि परीक्षा किए तो सांची ही परीक्षा होय। जहां पक्षपातकरि नीके परीक्षा न करे, तहाँ ही अन्यथा परीक्षा हो है। बहुरि यह कह है, जो शास्त्रनिविष परस्पर विरुद्ध कथन तो घने, कौन-कौनकी परीक्षा करिए। ताका समाधान- मोक्षमार्गविषै देव गुरु धर्म वा जीवादि तत्त्व वा बंधमोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं, सो इनिकी परीक्षा करि लेनी। जिन शास्त्रनिविषै ए सांचे कहै, तिनकी सर्व आज्ञा माननी। जिनविषै ए अन्यथा प्ररूपे, तिनकी आज्ञा न माननी। जैसे लोकविषै जो पुरुष प्रयोजनभूत कार्यनिविषे झूठ न बोले, सो, प्रयोजनरहित कार्यनिविषै कैसे झूठ बोलेगा। तैसे जिस शास्त्रविष प्रयोजनभूत देवादिकका स्वरूप अन्यथा न कह्या, तिस विषै प्रयोजनरहित द्वीप-समुद्रादिकका कथन अन्यथा कैसे होय? जाते देवादिकका कथन अन्यथा किए वक्ताके विषय-कषाय पोषे जांय हैं।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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