SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला अधिकार-१३ करते भी कहीं सूक्ष्म अर्थका अन्यथा वर्णन होय जाय तो विशेष बुद्धिमान होइ सो संवारकरि शुद्ध करियो, यह मेरी प्रार्थना है। ऐसे शास्त्र करने का निश्चय किया है। बांचने-सुनने योग्य शास्त्र अब इहा कैसे शास्त्र बांचने-सुनने योग्य हैं अर तिन शास्त्रनिके वक्ता श्रोता कैसे चाहिए सो वर्णन करिए है। जे शास्त्र मोक्षमार्ग का प्रकाश करै तेई शास्त्र यांचने-सुनने योग्य हैं। जाते जीव संसारविषे नाना दुःखनिकर पीड़ित है, सो शास्त्ररूपी दीपककरि मोक्षमार्ग को पावै तो उस मार्ग विषै आप गमनकार उन दुःखनित मुक्त होय। सो मोक्षमार्ग एक वीतराग भाव है, तातै जिन शास्त्रनिविषे काहू प्रकार राग-द्वेष-मोह भावनिका निषेध करि वीतराग भावका प्रयोजन प्रकट किया होय तिनिही शास्त्रनिका वांचना-सुनना उचित है। बहुरि जिनशास्त्रनिवि शृङ्गार मांग कुतूहलादेक पोथि रागभावका अर हिंसा-युद्धादिक पोषि द्वेषभाव का अर अतत्त्व श्रद्वान पोषि मोहभाव का प्रयोजन प्रगट किया होय ते शास्त्र नाहीं शस्त्र हैं। जाते जिन्न राग-द्वेष-मोह मावनिकरि जीव अनादित दुःखी भया तिनकी वासना जीवके बिना सिखाई ही थी। बहुरि इन शास्त्रनि करि तिनही का पोषण किया, भले होने की कहा शिक्षा दीनी। जीयका स्वभावघात ही किया ताते ऐसे शास्त्रनिका बांचना सुनना उचित नाही है। इहां बांचना-सुनना जैसे का तैसे ही जोड़ना सीखना सिखावना विधारना लिखावना आदि कार्य भी उपलक्षणकारे जान लैने। ऐसे साक्षात् वा परम्परायकरि वीतरागभावको पोष ऐसे शास्त्रहीका अभ्यास करना योग्य है। यक्ता का स्वरूप अब इनके वक्ता का स्वरूप कहिये है। प्रथम तो वक्ता कैसा होना चाहिए, जो जैन श्रद्धान विषै दृढ़ होय, जात ओ आप अश्रद्धानी होय तो औरको श्रद्धानी कैसे करै? श्रोता तो आपहीत हीन बुद्धि के थारक हैं तिनकों कोऊ युक्तिकरि श्रद्धानी कैसे करे? अर श्रद्धान ही सर्व धर्मका मूल है। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जाके विद्याभ्यास करनेः शास्त्र यांचनेयोग्य बुद्धि प्रगट भई होय, जातें ऐसी शक्ति बिना वक्तापनेका अधिकारी कैसे होय। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जो सम्यग्ज्ञानकरि सर्व प्रकार के व्यवहार निश्चयादिरूप व्याख्यानका अभिप्राय पहचानता होय, जातें जो ऐसा न होय तो कहीं अन्य प्रयोजन लिये व्याख्यान होय ताका अन्य प्रयोजन प्रगटकरि विपरीत प्रवृत्ति करावै । बहुरि वक्ता कैसा चाहिए, जाके जिनआज्ञा भंग करने का भय बहुत होय, जाते जो ऐसा न होय तो कोई अभिप्राय विचारि सूत्र-विरुद्ध उपदेश देय जीवनिका बुरा करे। सो ही कह्या है बहुगुणविज्जाणिलयो, असुत्तमासी तहावि मुत्तव्यो। जह परमणिजुत्तो वि हु विग्घयरो विसहरो लोए।७।। याका अर्थ- जो बहुत क्षमादिक गुण अर व्याकरण आदि विद्याका स्थान है तथाथि उत्सूत्रभाषी है तो छोड़ने योग्य है। जैसे उत्कृष्टमणिसंयुक्त है तो भी सर्प है सो लोकविषे विघ्नका ही करणहारा है। बहुरि वक्ता कैसा चाहिए जाकै शास्त्र वांचि आजीविका आदि लौकिक कार्य साधने की इच्छा न होय, जात जो
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy