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________________ मोममार्ग प्रकाशक-१२ कार्य घटावनेका प्रयोजन है अर उस पापीनै जे असत्यार्थ पद मिलाए हैं तिन विषै कषाय पोषनेका वा लौकिक कार्य साधनेका प्रयोजन है, ऐसे प्रयोजन मिलता नाही, तातै परीक्षाकरि ज्ञानी ठिगायते भी नाही, कोई मूर्ख होय सो ही जैनशास्त्र नामकरि टिगावै है। बहुरि ताकी परम्परा भी चाले नाहीं, शीघ्र ही कोऊ तिन असत्यार्थ पनि का निषेध करै है। बहुरि ऐसे तीव्रकषायी जैनामास इहाँ इस निकृष्ट कालविष ही हो है, उत्कृष्ट क्षेत्रकाल बहुत है, तिस विषै तो ऐसे होते नाहीं । तातें जैन शास्त्रनि विषै असत्यार्थ पदनिकी परम्परा चाले नाहीं, ऐसा निश्चय करना। बहुरि वह कहै कि कषायनिकरि तो असत्यार्थ पद न मिलाये परन्तु ग्रंथ करनेवालेकै क्षयोपशमज्ञान है तातें कोई अन्यथा अर्थ मासै ताकरि असत्यार्थ पद मिलावै ताकी तो परम्परा चले? ताका समाधान मूल ग्रंथकर्ता तो गणधरदेव है। ते आप च्यार ज्ञान के धारक हैं अर साक्षात केवलीका दिव्यध्वनि उपदेश सुनै है; ताका अतिशयकरि सत्यार्थ ही भासै है। अर ताहीके अनुसार ग्रन्थ बना है। सो उन ग्रन्थनिविषै तो असत्यार्थ पद कैसे गूंथे जाय अर अन्य आचार्यादिक ग्रन्थ बनावै है, ते भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञानके धारक हैं 1 बहुरि ते तिन मूलग्रन्थनिकी परंपराकरि ग्रन्थ बनाये है। बहुरि जिन पदनिका आपको ज्ञान न होइ तिनकी तो आप रचना करे नाही अर जिन पदनिका ज्ञान होइ तिनको सम्यग्ज्ञान प्रमाणते ठीक करि गूंधे है सो प्रथन तो ऐसा सवधानी विषे असत्यार्थ पद गूथे जाय नाही अर कदाचित् आपको पूर्व ग्रन्थनिके पदनिका अर्थ अन्यथा ही भासै अर अपनी प्रमाणतामें भी तैसे ही आजाय तो याका किछु सारा' नाहीं। परन्तु ऐसे कोइको भासे सबहीकों ती न भासै ताते जिनको सत्यार्थ भास्या होय ते ताका निषेधकार परम्परा चलने देते माहीं। बहुरि इतना जानना-जिनको अन्यथा जाने जीवका बुरा होय, ऐसा देव गुरु धर्मादिक वा जीव-अजीयादिक तत्त्वनिको तो श्रद्धानी जैनी अन्यथा जाने ही नाही, इनिका तो जैनशास्त्रनिविष प्रसिद्ध कथन है अर जिनको भ्रमकरि अन्यथा जाने भी जिन आज्ञा माननेत जीवका बुरा न होइ, ऐसे कोई सूक्ष्म अर्थ है तिन विषै किसी को कोई अन्यथा प्रमाणता में ल्याव तो भी ताका विशेष दोष नाहीं। सो गोमट्टसारविषै कह्या है सम्माइट्ठी जीवो उबइठं पवयणं तु सदहदि । सद्दहदि असब्भाव अजाणमाणो गुरुणियोगा।।२७।। - गो.सा.जीवकाण्ड याका अर्थ-सम्यग्दृष्टी जीव उपदेश्या सत्यवचनकों श्रद्धान करै है अर अजाणमाण गुरुके नियोग तै असत्यको भी श्रद्धान कर है, ऐसा कया है। बहुरि हमारे भी विशेष ज्ञान नाहीं है अर जिनआज्ञा भंग करने का बहुत भय है परन्तु इस ही विचारके बलते ग्रन्थ करने का साहस करते हैं सो इस ग्रन्थ विषै जैसे पूर्व ग्रन्थनि में वर्णन है तैसे ही वर्णन करेंगे। अथवा कहीं पूर्व ग्रन्थनिविषै सामान्य गूळ वर्णन था ताका विशेष प्रगट करि इहाँ वर्णन करेंगे। सो ऐसे वर्णन करने विषै मैं तो बहुत सावधानी रायूंगा। सावधानी १. वश नहीं।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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