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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - ११२ अन्य मत निराकरण उपसंहार इस ही प्रकार अन्य अनेक मत हैं ते झूठी कल्पित युक्ति बनाय विषय कषायासक्त पापी जीवनिकरि प्रगट किए हैं। तिनिका श्रद्धानादिकरि जीवनिका बुरा हो है। बहुरि एक जिनमत है सो ही सत्यार्थ का प्ररूपक है, सर्वज्ञ वीतरागदेवकरि भाषित है । तिसका श्रद्धानादिक करि ही जीवनिका भला हो है । सो जनमतविष जीवादि तच्च निरूपण किए हैं। प्रत्यक्ष परोक्ष दोय प्रमाण कहे हैं। सर्वज्ञ वीतराग अरहंत देव हैं। बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित निग्रंथ गुरु हैं सो इनिका वर्णन इस ग्रन्थविषै आगे विशेष लिखेंगे सो जानना । यहाँ कोऊ कहै- तुम्हारे राग-द्वेष है, तातें तुम अन्यमतका निषेध करि अपने मतको स्थापो हो ताको कहिए है यथार्थ वस्तु के प्ररूपण करने विषै राग-द्वेष नाहीं। किछू अपना प्रयोजन विचारि अन्यथा प्ररूपण करै सो रागद्वेष नाम पावे । बहुरि वह कहे है जो रागद्वेष नाहीं है तो 'अन्यमत बुरे, जैनमत भला' ऐसा कैसे कहो हो ? साम्यभाव होय तो सर्वको समान जानो, मतपक्ष काहेको करो हो । याको कहिए है- बुराको बुरा कहे हैं, भला को भला कहै हैं, यामें रागद्वेष कहा किया? बहुरि बुरा-‍ - भलाको समान जानना तो अज्ञानभाव है, साम्यभाव नाहीं । बहुरि वह कहे है- जो सर्वमतनिका प्रयोजन तो एक हो है तातैं सर्वको समान जानना । ताको कहिए है जो प्रयोजन एक होय तो नानामत काहेको कहिए। एक मतविषै तो एक प्रयोजन लिए अनेक प्रकार व्याख्यान हो है, ताको जुदा मत कौन कहे है। परन्तु प्रयोजन ही भिन्न-भिन्न है सो दिखाइए हैं अन्य मतों से जैनमतकी तुलना जैनमतविषै एक वीतरागभाव पोषने का प्रयोजन है सो कथानिविषै वा लोकादिका निरूपण विषे वा आचरण विषे या तत्त्वनिविषे जहाँ-तहाँ वीतरागताकी ही पुष्टता करी है। बहुरि अन्य मतनिविषै सरागभाव पोषने का प्रयोजन है । जातैं कल्पित रचना कषायी जीव ही करै सो अनेक युक्ति बनाय कषाय भाव ही को पोषै। जैसे अद्वैत ब्रह्मवादी सर्वको ब्रह्म मानने करि अर सांख्यमती सर्व कार्य प्रकृति का मानि आपको शुद्ध अकर्ता माननेकरिअर शिवमती तत्त्व जानने ही तैं सिद्धि होनी माननेकरि, मीमांसक कषायजनित आवरण को धर्म मान्नेकार, बौद्ध क्षणिक माननेकरि, चार्वाक परलोकादि न माननेकरि विषयभोगादिरूप कषायकार्यनिविष स्वच्छन्द होना ही पोष है। यद्यपि कोई ठिकाने कोई कषाय घटावने का भी निरूपण करे, तो उस छलकरि अन्य कोई कषायका पोषण करे है। जैसे गृहकार्य छोड़ि परमेश्वरका भजन करना ठहराया अर परमेश्वर का स्वरूप सरागी ठहराय उनके आश्रय अपने विषय कषाय पोषै । बहुरि जैनधर्मविषै देव गुरु धर्मादिकका
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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