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________________ nil तीसरा अधिकार - ५१ बहुसांचा उपाय है। बहुरि आयुकर्म के निमित्त पर्याय का धारना सो जीवितव्य है, पर्याय छूटना सर यह जीव मिथ्यादर्शनादिकर्ते पर्यायहीको आपो अनुभवै है, तातें जीवितव्य रहे अपना मन भए अपना अभाव होना माने है। इसही कारण सदा काल याके मरनका भय रहे या आकुलता रहे है। जिनको मरनका कारण जानै तिनसों बहुत डरै। कदाचित् उनका महाविल होइ जाय। ऐसे महा दुःखी रहे है। ताका उपाय यहु करे है जो मरने के कारणनिको जनसो आप भाग है। बहुरि औषधादिकका साधन करे है। गढ़ कोट आदिक बनावे है इत्यादि उपाय झूठा है, जातें आयु पूर्ण भए तो अनेक उपाय करे है, अनेक सहाई होइ तो होइ, एक समय मात्र भी न जीवै। अर यावत् आयु पूरी न होइ तावत् अनेक कारण स. होइ। तातैं उपाय किए मरन मिटता नाहीं । बहुरि आयुकी स्थिति पूर्ण होय ही होय यही होय, बाका उपाय करना झूठा ही है तो सौंचा उपाय कहा है? विकेत पर्यायविषे अहंबुद्धि छूटे, जादिनिधन आप चैतन्य विविध बुद्धि समान जाने तब मरणका भय रहै नाहीं । बहुरि सम्यग्दर्शनादिक होते सिद्ध पद अभाव ही होय । तातें सम्यग्दर्शनादिक ही सांचा उपाय है। नामकर्म के उदय गति जाति शरीरादिक निपजें हैं तिनविषे पुण्य के उदयतें जे हो है ते धरने में हैं। पापके उदयते हो हैं ते दुःख के कारण हो हैं। सो इहां सुख मानना भ्रम है; बहुरि प्रेरण मिटाने का, सुखके कारण होनेका उपाय करे है सो झूठा है। सांचा उपाय है। सो जैसे वेदनीयका कथन करते निरूपण किया तैसे इहां भी जानना । वेदनीय अर नाम कारणपनाकी समानता निरूपणकी समानता जाननी । बहुरि गोत्र कर्मके उदयतें ऊँचा है। तहाँ ऊँचा कुलविषै उपजें आपको ऊँधा माने है अर नीचा कुलविषै उपजै आपको पलटने का उपाय तो याको भासै नाहीं तातै जैसा कुल पाया तिसही कुल विषै आपो अपेक्षा आपको ऊँचा नीचा मानना भ्रम है। ऊँचा कुलकर कोई निद्य कार्य करे तो वह •अर नौचा कुलविषै कोई श्लाघ्य कार्य करे तो यह ऊँचा होइ जाय । लोभादिकतैं नीच सेवा करने लग जाय । बहुरि कुल कितेक काल रहे? पर्याय छूटे कुलको पलटनि नीचा कुलकर आपकूं ऊँचा-नीचा माने। ऊँचाकुल वालेको नीचा होनेके भयका अर पाए हुए नीचापने का दुःख ही है तो याका साँचा उपाय यहु ही है सो कहिए है । "ऊँचा नीचा कुलविष हर्षविषाद न मानै । बहुरि तिनहीतें जाकी बहुरि पलटनि न हो ऐसा पावे, सब सब दुःख मिटै, सुखी होय ( तातै सम्यग्दर्शनादिक दुःख मेटने अर सुख (उपाय *) या प्रकार कर्मका उदय की अपेक्षा मिथ्यादर्शनादिकके निमित्त संसारविषै दुःख ताका वर्णन किया। अब इसही दुःखको पर्याय अपेक्षाकरि वर्णन करिए है। प्र में नहीं है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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