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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-५२ एकेन्द्रिय जीवों के दुःख इस संसारविषे बहुत काल तो एकेन्द्रिय पर्यायही विष बीते है। तातें अनादिही तो नित्यनिगोद विषै रहना, बहुरि तहाँतें निकसना ऐसे जैसे भाड़मुनत चणाका उछटि जाना सो तहाँत निकसि अन्य पर्याय धरै तो त्रसविषै तो बहुत थोरेही काल रहै, एकेन्द्रीही विषै बहुत काल व्यतीत करै है। तहाँ इतरनिगोदविषे बहुत रहना होइ । अर कितेक काल पृथिवी अप तेज वायु प्रत्येक वनस्पतीविषै रहना होइ । नित्य निगोदत निकसे पीछे प्रसविषै तो रहने का उत्कृष्ट काल साधिक दो हजार सागर ही है' अर एकेन्द्रियविषै उत्कृष्ट रहनेका काल असंख्यात पुद्गल परावर्तन मात्र है अरु पुद्गल परावर्तनका काल ऐसा है जाका अनन्तयां भागविष भी अनन्ते सागर हो हैं। ताते इस संसारी के मुख्यपने एकेन्द्रिय पर्यायविष ही काल व्यतीत हो है। तहाँ एकेन्द्रियके ज्ञानदर्शन की शक्ति तो किंचिन्मात्र ही रहै है। एक स्पर्शन इन्द्रियके निमित्तते भया मतिज्ञान अर ताकै निमित्ततै भया श्रुतज्ञान अर स्पशनइन्द्रियजानत अचक्षुदर्शन जिनकरि शीत उष्णादिकको किंचित् जाने देखै है, ज्ञानावरण दर्शनावरणके तीन उदयकरि यात अथिक ज्ञानदर्शन न पाइए है अर विषयनिकी इच्छा पाइए है तातै महादुःखी है। बहुरि दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है ताकरि पर्यायहीको आपो श्रद्धहै है, अन्यविचार करने की शक्ति ही नाहीं। बहुरि चारित्रमोहके उदयनै तीव्र क्रोधादि कषायरूप परिणम है जाते उनके केवली भगवानने कृष्ण नील कापोत ए तीन अशुभ लेश्याही कही है। सो ए तीव्र कषाय होते ही हो हैं सो कषाय तो बहुत अर शक्ति सर्व प्रकारकरि महाहीन तातै बहुत दुःखी होय रहे है, किछू उपाय कर सकते नाहीं। इहाँ कोऊ कहै-ज्ञान तो किंचिन्मात्रही रह्या है, वे कहा कषाय करै है? ताका समाधान-जो ऐसा तो नियम है नाहीं जेता ज्ञान होय तेता ही कषाय होय। ज्ञान तो क्षयोपशम जेता होय तेता हो है। सो जैसे कोऊ आँथा बहरा पुरुषकै ज्ञान थोरा होते भी बहुत कषाय होते देखिए है तैसे एकेन्द्रिय के झान थोरा होते भी बहुत कषायका होना मानना है। बहुरि बाघ कषाय प्रगट तब हो है जब कषायके अनुसार किछु उपाय करे। सो वे शक्तिहीन है तातें उपाय कर सकते नाहीं । सात उनकी कषाय प्रगट नाही हो है। जैसे कोऊ पुरुष शक्तिहीन है ताके कोई कारणले तीव्र कषाय होय परन्तु किछु करि सकते नाहीं । ताते वाका कषाय बाल प्रगट नाही हो है, यूं ही अति दुःखी हो है। तैसे एकेन्द्रिय जीव शक्तिहीन हैं, तिनकै कोई कारणः कषाय हो है परन्तु, किछु कर सकै नाहीं, तातै उनकी कषाय बाह्य प्रगट नाही हो है; वे आप ही दुःखी हो हैं। बहुरि ऐसा जानना, जहाँ कषाय बहुत होय अर शक्ति होन होय तहाँ घना दुःखी हो है। बहुरि जैसे कषाय घटती जाय, शक्ति बंधती जाय तैसे दुःख घटता हो है। सो एकेन्द्रियनिके कषाय बहुत अर शक्ति हीन तात एकेन्द्रिय जीव महादुःखी हैं। उनके दुःख वे ही भोगवै हैं, अर केवली जाने है। जैसे सन्निपातीका ज्ञान घट जाय अर बाम शक्ति के हीनपनेतें अपना दुःख प्रगट भी न कर सकै परन्तु वह महादुःखी है तैसे एकेन्द्रियका ज्ञान तो थोरा है अर बाम शक्तिहीनपनाते अपना १. इसका अभिप्राय यह है कि त्रस जीवों में जीव अधिक से अधिक पूर्व कोटी पृथक्त्व अधिक २००० सागर तक रहता है। इससे अधिक त्रस काय में रहना सम्भव नहीं। (धवला ४-४०८)
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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