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________________ चौथा अथिकार-६६ आत्मानुशासनकार कहते हैं कि अपने निर्मल परिणामों द्वारा पाप का नाश और पुण्य का उपार्जन भली प्रकार करना चाहिए।। श्लोक २३ ।। (आत्मानुशासन पृ. १५ स्वयं पण्डित टोडरमलजी कृत टीका, गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान प्रकाशन) पद्मनन्दी आचार्य लिखते हैं - “अत: हे पण्डितजनो ! निर्मलपुण्यराशि के भाजन होओ अर्थात् पुण्य उपार्जन करो।" (प. पंच.१/१९८) जीवकाण्ड की मुख्तारी टीका के पृष्ठ ७०० से ७०२ भी देखें। मिथ्याज्ञानका स्वरूप अब मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहिए है-प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिका अयथार्थ जानना ताका नाम मिथ्याज्ञान है। ताकरि तिनके जाननेविषे संशय विपर्यय अनध्यवसाय हो है। तहाँ ऐसे है कि ऐसे है, ऐसा परस्पर विरुद्धता लिए दोयरूप ज्ञान ताका नाम संशय है, जैसे 'मैं आत्मा हूँ कि शरीर हूँ' ऐसा जानना। बहुरि ऐसे ही है, ऐसा वस्तुस्वरूपः विरुद्धता लिए एकरूप ज्ञान ताका नाम विपर्यय है, जैसे 'मैं शरीर हूँ' ऐसा जानना। बहुरि किछु है, ऐसा निर्धाररहित विचार ताका नाम अनध्यवसाय है जैसे 'मैं कोई हूँ' ऐसा जानना। या प्रकार प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वनिविषे संशय विपर्यय अनध्यवसायस्प जो जानना होय ताका नाम मिथ्याज्ञान है। बहुरि अप्रयोजनभूत पदार्थनिको यथार्थ जानै वा अयथार्थ जानै ताकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम नाहीं है। जैसे मिथ्यादृष्टि जेवरीको जेवरी जानै तो सम्यग्ज्ञान नाम न होय अर सम्यग्दृष्टि जेवरीको सांप जानै तो मिथ्याज्ञान नाम न होय। इहाँ प्रश्न-जो प्रत्यक्ष साँचा झूटा ज्ञानको सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान कैसे न कहिए? ___ ताका समाधान-जहाँ जाननेहीका, साँचा झूटा निर्धार करनेही का प्रयोजन होय तहाँ तो कोई पदार्थ है ताका साँचा झूठा जानने की अपेक्षा ही मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम पावै है। जैसे प्रत्यक्ष परोक्षप्रमाणका वर्णनविष कोई पदार्थ है ताका सांचा जानने रूप सम्यग्ज्ञानका ग्रहण किया है। संशयादिरूप जाननेको अप्रमाणरूप मिथ्याज्ञान कया है। बहुरि इहाँ संसार मोक्षके कारणभूत सांचा झूठा जाननेका निर्धार करना है सो जेवरी सादिकका यथार्थ वा अन्यथा ज्ञान संसार मोक्षका कारण नाहीं। तातै तिनकी अपेक्षा इहां मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान न कह्यर। इहाँ प्रयोजनभूत जीवादिकतत्त्वनिहींका जाननेकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान कया है। इस ही अभिप्रायकरि सिद्धान्तविषै मिथ्यादृष्टिका तो सर्वजानना मिथ्याज्ञान ही कह्या अर सम्पग्दृष्टि का सर्वजानना सम्यग्ज्ञान कह्या । इहाँ प्रश्न-जो मिथ्यादृष्टिकै जीवादि तत्त्वनिका अयथार्थ जानना है ताको मिथ्याज्ञान कहो। जेवरी सादिकके यथार्थ जाननेको तो सम्यग्ज्ञान कहो? ताका समाधान-मिथ्यादृष्टि जाने है, तहाँ वाकै सत्ता असत्ता का विशेष नाहीं है । तात कारणविपर्यय वा स्वरूपविपर्यय वा भेदाभेद विपर्ययको उपजावै है। तहाँ ताको जानै है ताका मूल कारणको नहि पहिचाने।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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