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________________ आठवाँ अधिकार - २५३ सो तो कार्यकारी भी घना अर समझिमें भी शीघ्र आवे परन्तु द्रव्यगुणपर्यायादिकका वा प्रमाण नय आदिक का वा अन्यमतके कहे तत्त्वादिके निराकरणका कथन किया, सो तिनिका अभ्यासतें विकल्प विशेष होय । बहुत प्रयास किए जाननेमें आवै । तातैं इनिका अभ्यास न करना । तिनिको कहिए है सामान्य जानने विशेष जानना बलवान है। ज्यों-ज्यों विशेष जानें त्यों-त्यों वस्तुस्वभाव निर्मल भासै, श्रद्धान दृढ़ होय, रागादि घटै तातें तिस अभ्यासविषै प्रवर्त्तना योग्य है । ऐसे व्यारों अनुयोगनिविषै दोषकल्पनाकरि अभ्यासतें पराङ्मुख होना योग्य नाहीं । बहुरि व्याकरण न्यायादिक शास्त्र हैं, तिनका भी थोरा बहुत अभ्यास करना । जातैं इनिका ज्ञान बिना बड़े शास्त्रनिका अर्थ भासै नाहीं । बहुरि वस्तुका भी स्वरूप इनकी पद्धति जाने जैसा भासे तैसा भाषादिककरि भासै नाहीं । तातैं परम्परा कार्यकारी जानि इनका भी अभ्यास करना परन्तु इनहीविषै फंसि न जाना। किछू इनका अभ्यासकरि प्रयोजनभूत शास्त्रनिका अभ्यासविषै प्रवर्त्तना । बहुरि वैद्यकादि शास्त्र हैं, तिनतैं मोक्षमार्गविषै किछू प्रयोजन ही नाहीं । तातैं कोई व्यवहारधर्मका अभिप्रायतें बिनाखेद इनका अभ्यास होय जाय तो उपकारादि करना, पापरूप न प्रवर्त्तना । अर इनका अभ्यास न होय तो मत होहु, किछू बिगार नाहीं । ऐसे जिनमतके शास्त्र निर्दोष जानि तिनका उपदेश मानना । अपेक्षा ज्ञान के अभाव से आगम में दिखाई देने वाले परस्पर विरोध का निराकरण अब शास्त्रनिविषै अपेक्षादिकको न जाने परस्पर विरोध भासे, ताका निराकरण कीजिए है। प्रथमादि अनुयोगनिकी आम्नायके अनुसारि जहाँ जैसे कथन किया होय, तहाँ तैसे जानि लेना। और अनुयोग का कथनको और अनुयोगका कथनतें अन्यथा जानि सन्देह न करना । जैसे कहीं तो निर्मल सम्यग्दृष्टीहीकै शंका कांक्षा विचिकित्सा का अभाव कह्या, कहीं भय का आठवाँ गुणस्थान पर्यन्त, लोभ का दशमा पर्यन्त, जुगुप्साका आठवाँ पर्यन्त उदय कथा, तहाँ विरुद्ध न जानना । श्रद्धानपूर्वक तीव्र शंकादिकका सम्यग्दृष्टीकै अभाव भया अथवा मुख्यपने सम्यग्दृष्टी शंकादि न करे, तिस अपेक्षा चरणानुयोगविषै शंकादिकका सम्यग्दृष्टीकै अभाव कह्या । बहुरि सूक्ष्मशक्ति अपेक्षा भयादिकका उदय अष्टमादि गुणस्थान पर्यन्त पाईए है । तातैं करणानुयोगविषे तहाँ पर्यन्त तिनका सद्भाव कह्या ऐसे ही अन्यत्र जानना । पूर्वे अनुयोगनिका उपदेशविधानविषै कई उदाहरण कहे हैं, ते जानने अथवा अपनी बुद्धि समझि लेने । बहुरि एक ही अनुयोगविषै विवक्षाके वशर्ते अनेकरूप कथन करिए है । जैसे करणानुयोगविष प्रमादनिका सप्तम गुणस्थानविषै अभाव का, तहाँ कषायादिक प्रमाद के भेद कहे। बहुरि तहाँ ही कषायादिकका सद्भाव दशमादि गुणस्थान पर्यन्त कह्या तहाँ विरुद्ध न जानना । जातें यहाँ प्रमादनिविषै तो जे शुभ अशुभ भावनि का अभिप्राय लिए कषायादिक होय तिनका ग्रहण है। सो सप्तम गुणस्थानविषै ऐसा अभिप्राय दूर भया, तातैं तिनिका तहाँ अभाव कला | बहुरि सूक्ष्मादिभावनिकी अपेक्षा तिनहीका दशमादि गुणस्थान पर्यन्त सद्भाव का है। बहुरि चरणानुयोगविषै चोरी, परस्त्री आदि सप्त व्यसनका त्याग प्रथम प्रतिमाविषै कह्या, बहुरि तहाँ
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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