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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - २३२ बांचे सुनै, तो तिनको यहु तिसका उदाहरणरूप भासे है। जैसे जीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ हैं, ऐसे यहु जानै था । बहुरि पुराणनिविषै जीवनिके भवांतर निरूपण किए, ते तिस जानने के उदाहरण भए। बहुरि शुभ अशुभ शुद्धोपयोगको जानै था वा तिनके फलको जाने था । बहुरि पुराणनिविषै तिन उपयोगनिकी प्रवृत्ति अर तिनका फल जीवनिकै भया, सो निरूपण किया। सो ही तिस जाननेका उदाहरण भया । ऐसे ही अन्य जानना । यहाँ उदाहरण का अर्थ यहु जो जैसे जाने था तैसे ही तहाँ कोई जीवकै अवस्था भई तातें यह तिस जानने की साखि भई बहुरि जैसे कोई सुभट है, सो सुभटनिकी प्रशंसा अर कायरनिकी निन्दा ना हो ऐसी कोई पुराणपुरुषनिकी कथा सुननेकरि सुभटपनाविषै अति उत्साहवान हो है । तैसे धर्मात्मा है, सो धर्मात्मानिकी प्रशंसा अर पापीनिकी निन्दा जाविषै होय, ऐसे कोई पुराणपुरुषनिकी कथा सुननेकरि धर्मविषै अति उत्साहवान हो है। ऐसे यहु प्रथमानुयोग का प्रयोजन जानना । करणानुयोग का प्रयोजन बहुरि करणानुयोगविषै जीवनिकी वा कर्मनिका विशेष वा त्रिलोकादिककी रचना निरूपणकरि जीवनको धर्मविषै लगाईए हैं। जे जीव धर्मविषै उपयोग लगाया चाहे, ते जीवनिका गुणस्थान मार्गणा आदि विशेष अर कर्मनिका कारण अवस्था फल कौन-कौन कै कैसे-कैसे पाइए, इत्यादि विशेष अर त्रिलोकविषै नरक स्वर्गादिकके ठिकाने पहिचानि पापते विमुख होय धर्मविषे लागे हैं। बहुरि ऐसे विचारविषै उपयोग रमि जाय, तब पाप प्रवृत्ति छूटि स्वयमेव तत्काल धर्म उपजै है । तिस अभ्यासकरि तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति शीघ्र हो है । बहुरि ऐसा सूक्ष्म यथार्थ कथन जिनमतविषे ही है, अन्यत्र नाहीं, ऐसे महिमा जानि जिनमतका श्रद्धानी हो है । बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी होय इस करणानुयोगको अभ्यास हैं, तिनको यहु तिसका विशेषरूप भा है जो जीवादिक तत्त्व आप जाने है, तिनहीका विशेष करणानुयोगविषे किए हैं। तहाँ केई विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, केई उपचार लिए व्यवहाररूप हैं। केई द्रव्य क्षेत्र काल भावादिकका स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं, केई निमित्त आश्रयादि अपेक्षा लिए हैं । इत्यादि अनेक प्रकारके विशेषण किए हैं, तिनको जैसाका तैसा मानना तिस करणानुयोगको अभ्यासे हैं। इस अभ्यास तत्त्वज्ञान निर्मल हो है । जैसे कोऊ यहु तो जाने था यहु रत्न है परन्तु उस रत्न के घने विशेष जाने निर्मल रत्नका पारखी होय, तैसे तत्त्वनिको जान था ए जीवादिक हैं परन्तु तिन तत्त्वनिके घने विशेष जानै तो निर्मल तत्त्वज्ञान होय । तत्त्वज्ञान निर्मल ए आप ही विशेष धर्मात्मा हो है । बहुरि अन्य ठिकाने उपयोगको लगाईए तो रागादिककी वृद्धि होय अर छद्मस्थका एकाग्र निरन्तर उपयोग रहे नाहीं । तातैं ज्ञानी इस करणानुयोगका अभ्यासविषै उपयोगको लगावै है । तिसकरि केवलज्ञानकरि देखे पदार्थनिका जानपना याकै हो है। प्रत्यक्ष अप्रत्यक्षहीका भेद है, भासनेविषै विरुद्ध है नाहीं ऐसे यहु करणानुयोगका प्रयोजन जानना । 'करण' कहिए गणित कार्यको कारण सूत्र तिनका जाविषै 'अनुयोग' अधिकार होय, सो करणानुयोग है। इस विषै गणित वर्णनकी मुख्यता है, ऐसा जानना । विशेष त्रिलोकसार गाथा १-३ की टीका में "केवलज्ञानसमानं करणानुयोगनामानं परमागमं...” इन शब्दों द्वारा करणानुयोग को केवलज्ञान समान कहा । लोक- अलोक के विभाग 1
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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