SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२१४ भावार्थ- यहाँ व्यवहारका तो त्याग कराया, लात निश्चयको अंगीकारकरि निजमहिमारूए प्रवर्त्तना युक्त है। बहुरि षट्पाहुविधै कया है जो सुत्तो वयहारे सो जोई जागदे सकज्जम्मि। जो जागदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे।।१।। याका अर्थ- जो व्यवहारविषै सृता है सो जोगी अपने कार्यविथै जारी है। बहुरि जो व्यवहारविषै जागै है सो अपने कार्यविषै सूता है। तातै व्यवहारनयका श्रदान छोड़ि निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है। व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यको वा तिनके भावनिको वा कारण कायांदिकको काहूको काहूविषै मिलाय निरपण करै है। सो ऐसे ही श्रद्धाननै मिथ्यात्व है ताते याका त्याग करना। बहुरि निश्चयनय तिनही को यथावत् निरूप है, काहूको काहूविषै न मिला है। सो ऐसे ही श्रद्धानतें सम्यक्त्व हो है ताते याका श्रद्धान करना। वहाँ प्रश्न जो ऐसे है तो जिनमावि पोऊ नयाँनेको ग्रहण करना कह्या है सो कैसे? ताका समाधान- जिनमार्गविषै कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताको तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है। ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताको ‘ऐसे है नाही, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है। ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है। वहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानि ऐसे भी है, ऐसे भी है- ऐसा भ्रमरूप प्रवर्त्तनेकरि तो दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या है नाहीं। बहुरि प्रश्न- जो व्यवहारनय असत्यार्थ है तो ताका उपदेश जिनमार्गविष काहेको दिया? एक निश्चयनयहीका निरूपण करना था। ___ ताका समाधान- ऐसा ही तर्क समयसारविर्ष किया है। तहाँ यह उत्तर दिया है जह णवि सक्कमणिज्जो अणज्जभासंथिणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्युवएसणमसक्कं ।। गाथा ८ ॥ याका अर्थ- जैसे अनार्य जो म्लेच्छ सो ताहिको म्लेच्छभाषा बिना अर्थ ग्रहण करावनेको समर्थ न हूजे । तैसे व्यवहार बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है। तातै व्यवहारका उपदेश है। बहुरि इसही सूत्रकी व्याख्याविषै ऐसा कह्या है- 'व्यवहारनयो नानुसतव्यः' । याका अर्थ- यह निश्चयके अंगीकार कराबनेको व्यवहार करि उपदेश दीजिए है। बहुरि व्यवहारनय है सो अंगीकार करने योग्य नाहीं। यहाँ प्रश्न- व्यवहारबिना निश्चय का उपदेश कैसे न होय । बहुरि व्यवहारनय कैसे अंगीकार न करना, सो कहो? ___ताका समाधान- निश्चयनयकरि तो आत्मा परद्रव्यनि भिन्न स्वभावनितें अभिन स्वयंसिद्ध वस्तु है। ताको जे न पहिचान, तिनको ऐसे ही कह्या करिए तो वह समझै नाहीं। तब उनको व्यवहारनयकरि शरीरादिक परद्रव्यनिकी सापेक्षकरि नर नारक पृथ्वीकायादिरूप जीवके विशेष किए। तब मनुष्यजीव हैं,
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy