SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०६ वैशेषिकमत निराकरण बहुरि वैशेषिकमतविषै छह तत्त्व कहे हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समयाय। तहाँ द्रव्य नवप्रकार-पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन। तहां पृथ्वी जल अग्नि पवनके परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। ते परमाणु नित्य हैं। तिनकरि कार्यरूप पृथ्वी आदि हो है सो अनित्य है। सो ऐसा कहना प्रत्यक्षादित विरुद्ध है। ईंधन स पृथ्वी के परमाणु आग्नरूप होते देखिए हैं। अग्नि के परमाणु राखरूप पृथ्वी होते देखिए है। जलके परमाणु मुक्ताफल (मोती) रूप पृथ्वी होते देखिए है। बहुरि जो तू कलैगा, वे परमाणु जाते रहे हैं, और ही परमाणु तिनिरूप हो हैं सो प्रत्यक्षको असत्य ठहराव है। ऐसी कोई प्रबलयुक्ति कह तो ऐसे ही माने, परन्तु सेवन कहे ही नो ऐसे ठहरै नाहीं। तातै सब परमाणूनिकी एक पुद्गलरूप मूर्तीक जाति है सो पृथ्वी आदि अनेक अवस्थास्प परिणमै है। बहुरि इन पृथ्वी आदिकका कहीं जुदा शरीर ठहराचे है, सो मिथ्या ही है। जाते वाका कोई प्रमाण नाहीं । अर पृथ्वी आदि तो परमाणु पिंड है। इनका शरीर अन्यत्र, ए अन्यत्र ऐसा सम्भव नाहीं तात यहु मिथ्या है। बहुरि जहाँ पदार्थ अटकै नाही, ऐसी जो पोलि ताको आकाश कहै हैं । क्षण पल आदिको काल कहै हैं। सो ए दोन्यों ही अवस्तु हैं। सत्तारूप ए पदार्थ नाहीं। पदार्थनिका क्षेत्रपरिणमनादिकका पूर्वापरविद्यार करने के अर्थ इनकी कल्पना कीजिए है। बहुरि दिशा किछू है ही नाहीं। आकाशविष खंड कल्पनाकरि दिशा मानिए है; बहुरि आत्मा दोय प्रकार कहै है सो पूर्व निरूपण किया ही है। बहुरि मन कोई जुदा पदार्थ नाहीं। भावमन तो मानसप है सो आत्मा का स्वरूप है। द्रव्यमन परमाणूनिका पिंड है सो शरीर का अंग है। ऐसे ए द्रव्य कल्पित जानने । बहुरि गुण चौईस कहै हैं-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार, द्वेष, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व ! सो इनिविर्व स्पर्शादिक गुण तो परमाणुनिविषै पाइए है। परन्तु पृथ्वी को गन्थयती ही कहनी, जल को शीत स्पर्शवान ही कहना इत्यादि मिथ्या है, जाते कोई पृथ्वी विषै गंथ की मुख्यता न भासे है, कोई जल उष्ण देखिए है इत्यादि प्रत्यक्षादित विरुद्ध हैं। बहुरि शब्द को आकाशका गुण कहै सो मिथ्या है। शब्द तो भीति इत्यादिस्यों रुकै है, तातै मूर्तीक है। आकाश अमूर्तीक सर्वव्यापी है। भीतिविध आकाश रहे शब्दगुण न प्रवेशकार सके, यहु कैसे बने? बहुरि संख्यादिक है सो वस्तुविषै तो किछू है नाही, अन्य पदार्थ अपेक्षा अन्य पदार्थ के होनाषिक जानने को अपने ज्ञानविषै संख्यादिककी कल्पनाकरि विचार कीजिए है। बहुरि बुद्धि आदि है, सो आत्मा का परिणमन है। तहाँ बुद्धि नाम ज्ञान का है तो आत्मा का गुण है ही अर मन का नाम है तो मन तो द्रव्यनिविष कक्षा ही था, यहाँ गुण काहेको कहा। बहुरे सुखादिक है सो आत्माविषे कदाचित् पाइए है, आस्मा के लक्षणपूत तो ए गुण है नाहीं, अव्याप्तपनेत लक्षणाभास है; बहुरि स्नेहादि पुद्गलपरमाणुविष पाइए है सो स्निग्य गुरु इत्यादि तो स्पर्शन इन्द्रियकार जानिए तारौं स्पर्शगुणविङ गर्मित भए, जुदे काहेको कहै। बद्धरि द्रव्यत्वगुण जलविषे कहा, सो ऐसे तो अग्निआदिविषै ऊर्ध्वगपनत्य आदि पाइए है। के तो सर्व कहने थे, के सामान्यविषे । गर्भित करने थे। ऐसे ए गुण कहे ते भी कल्पित है। बहुरि कर्म पाँच प्रकार कहै है-उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, गमन । सो ए तो शरीरकी चेष्टा है। इनिको जुदा कहनेका अर्थ कहा। बहुरि एती हो
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy