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________________ पाश भी दशा हो है । गृहीत मिध्यात्वको भी ग्रहै है । निगोदादिविषै भी रुलै है । याका किछू प्रमाण नाहीं । बहुरि कोई जीव सम्यक्ततें भ्रष्ट होय सासादन हो है। सो तहाँ जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल रहे है, सो याका परिणामकी दशा वचनकरि कहने में आवती नाहीं। सूक्ष्मकालमात्र कोई जाति के केवलज्ञानगम्य परिणाम हो है। तहाँ अनंतानुबंधीका तो उदय हो है, मिध्यात्वका उदय न हो है । सो आगम प्रमाणत याका स्वरूप जानना । बहुरि कोई जीव सम्यक्त भ्रष्ट होय, मिश्रगुणस्थान को प्राप्त हो है। तहाँ मिश्रमोहनीयका उदय हो है । याका काल मध्यम अन्तर्मुहूर्त मात्र है। सो याका भी काल थोरा है, सो याकै भी परिणाम केवलज्ञानगम्य हैं । यहाँ इतना भारी है - जैसे काहूको सीख दई तिसको वह किछू सत्य किछू असत्य एकै काल मानै तैसे तत्त्वनिका श्रद्धा अश्रद्धान एकै काल होय सो मिश्रदशा है। केई कहे हैं - हमको तो जिनदेव वा अन्य देव सर्व ही वंदने योग्य हैं, इत्यादि मिश्र श्रद्धान को मिश्रगुणस्थान कहै हैं, सो नाहीं । यहु तो प्रत्यक्ष मिथ्यात्यदशा है । व्यवहाररूप देवादिका श्रद्धान भए भी मिध्यात्व रहै है, तो याकै तो देव कुदेव को किछू ठीक ही नाहीं । याकै तो यहु विनयमिथ्यात्व प्रगट है, ऐसा जानना । विशेष- सम्यग्मिथ्यात्व के विषय में सकलतत्त्वों के पारदर्शी केवली के समान नैसर्गिकी प्रज्ञा के धारक १०८ वीरसेन स्वामी लिखते हैं-- “ समीचीन और असमीचीन रूप दोनों श्रद्धाओं का क्रम से एक आत्मा में रहना सम्भव है तो कभी किसी आत्मा में एक साथ भी उन दोनों का रहना बन सकता है। यह सब कथन काल्पनिक नहीं है क्योंकि पूर्व स्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अर्हन्त भी देव हैं ऐसे अभिप्राय वाला पुरुष पाया जाता है" (यही सम्यग्मिथ्यादृष्टि है | ) धवल १/१६८ अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती गो. जी. म. प्र. टीका २२ में लिखते हैं कि- "जैसे किसी के अपने मित्र के प्रति तो मित्रता है तथा चैत्र नामक व्यक्ति से शत्रुता है। इस प्रकार उस जीव के एक काल में उसके हृदय में मित्रता व शत्रुता के भाव युगपत् रहते हैं। तथैव किसी पुरुष के अर्हन्त आदि में श्रद्धान की अपेक्षा सम्यक्त्व है तथा अनाप्त आदि में श्रद्धान की अपेक्षा मिध्यात्व है। ये दोनों भाव विषयभेद होने से एक ही पुरुष में एक काल में सम्भव होते हैं, इस कारण सम्यग्मिथ्यादृष्टित्व अविरुद्ध है । I उक्तगाथा की टीका में ही केशव वर्गी तथा नेमिचन्द्र एक स्वर से लिखते हैं कि पूर्व गृहीत अतत्त्व श्रद्धान के त्यागे बिना उसके साथ तत्त्वश्रद्धान भी होता है ( सम्यग्मिथ्यादृष्टि के ) । पं. सं. प्रा. १/१० में कुछ भी विशेष कथन नहीं है। सोमदेव अपने उपासकाध्ययन ( ४ / १४४ / पृ. ३६ ज्ञानपीठ प्रकाशन) में लिखते हैं कि
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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