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________________ तीसरा .. . है तातै ताके दूर करनेका उपाय करै है अर साताका उदय होतें जो होय ताकरि सुख भासे है तातै ताको होनेका उपाय करै है। सो यहु उपाय झूटा है। प्रथम तो याका उपाय याके आधीन नाही, वेदनीयकर्मका उदयके आधीन है। असाताके मेटनेके अर्थ साताकी प्राप्ति के अर्थितो सर्वहीकै यत्न रहै हैं परन्तु काहूके थोरा यत्न किए भी वा न किए भी सिद्धि होइ जाय, काहूके बहुच यत्न किए भी सिद्धि न होय, तातें जानिए है याका उपाय याके आधीन नाहीं; बहुरि कदाचित उपाय भी करै अर तैसा ही उदय आवै तो थोरे काल किंचित काहू प्रकार की असाताका कारण मिटै अर साता का कारण होय, तहाँ भी मोहके सद्भावनै तिनको भोगनेकी इच्छाकरि आकुलित होय । एक भोग्यवस्तुको भोगनेकी इच्छा होय, वह यावत् न मिलै तावत् तो पाकी इच्छाकरि आकुलित होय अर वह मिल्या अर उसही समय अन्यको भोगने की इच्छा होइ जाय, तब ताकरि आकुलित होइ। जैसे काहूको स्वाद लेनेकी इच्छा भई थी, वाका आस्वाद जिस समय भया तिसही समय अन्य वस्तुका स्वाद लेनेकी वा स्पर्शनादि करनेकी इच्छा उपज है। अथवा एक ही वस्तुको पहिले अन्य प्रकार भोगनेकी इच्छा होइ, यह यावत् न मिले तावत् वाकी आकुलता रहै अर वह भोग भया अर उसही समय अन्य प्रकार भोगने की इच्छा होय। जैसे स्त्रीको देख्या चाहै था, जिस समय अवलोकन भया उस ही समय रमने की इच्छा हो है। बहुरि ऐसे भोग भोगते ही तिनके अन्य उपाय करनेकी आकुलता हो है सो तिनको छोरि अन्य उपाय करने को लागै है। तहाँ अनेक प्रकार आकुलता हो है। देखो एक धनका उपाय करनेमें व्यापारादिक करते बहुरि वाकी रक्षा करने में सावधानी करते केती आकुलता हो है। बहुरि क्षुथा तृषा शीत उष्ण मल श्लेष्मादि असाताका उदय आया ही करै, ताका निराकरण करि सुख मानै सो काहेका सुख है, यह तो रोगका प्रतिकार है। यावत् क्षुधादिक रहै तावत् तिनको मिटावनेकी इच्छाकरि आफुलता होय, वह मिटै तब कोई अन्य इच्छा उपजै ताकी आकुलता होय, बहुरि क्षुधादिक होय तब उनकी आकुलता होइ आवै । ऐसा याके उपाय करतें कदाचित् असाता मिटि साता होई तहाँ भी आकुलता रह्या ही करे, तातै दुःख हो रहे है। बहुरि ऐसे भी रहना तो होता नाही, आपको उपाय करते-करते ही कोई असाताका उदय ऐसा आवै ताका किछु उपाय पनि सकै नाही अर ताकी पीड़ा बहुत होय, सही जाय नाहीं; तब ताकी आकुलताकार विश्ल होइ जाय तहाँ महादुःखी होय। सो इस संसार में साताका उदय तो कोई पुण्यका उदयकरि काहूर्फ कदाथित् ही पाइए है, घने जीवनिकै बहुत काल असाताहीका उदय रहै है। सातै उपाय करै सो झूठा है। अथवा बाह्य सामग्रीते सुख - दुःख मानिए है सो ही प्रम है। सुख दुःख तो साता असाताका उदय होते मोहका निमित्तते हो है सो प्रत्यक्ष देखिये है। विशेष-परम पूज्य धवल ग्रन्थराज (पुस्तक १५ पृ. ५०-६१) पर लिखा है कि सातवेदनीय के वेदक स्तोक हैं। उनसे असातावेदनीय के वेदक संख्यातगुणे हैं अर्थात् कुल संसारी जीयों के संख्यातवें भाग प्रमाण जीव ही सुखी मिलते हैं। यह सामान्य विवेचन है। गत्यनुसार विवेचन करने पर नरक में साता के वेदकों से असंख्यातगुणे, असाता के वेदक नित्य मिलते हैं। द्रव्य, क्षेत्र,काल, भाव का परिणमन इंद्रियों को सुख पहुँचाने के योग्य नहीं है, अतः वहाँ असाता के वेदक बहुसंख्यक है (ति.प. दूसरा अधिकार) परन्तु मनुष्य या बस तिर्यच या देवों में असाता के वेदक स्तोक हैं। साता
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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