Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 334
________________ परिशिष्ट - ३०४ नीललेश्या - अधिक निद्रा, पर-बञ्चकता, तीव्र । प्रदेशबन्ध - विषयासक्ति आदि परिणाम। नीहार - मलमूत्रादि। प्रतिमाधारीनोकर्म - तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण। प्रत्यक्ष ज्ञान - कमोदय में सहायक द्रव्य । नन्दीश्वर - मध्यलोक का आठवाँ द्वीप जहाँ देव प्रत्येक - अष्टाहिका पर्योत्सव मनाते हैं। पडिकमण-प्रतिक्रमण -'मेरे पाप मिथ्या हो इस प्रकार का प्रमाण - भाव। प्रमावपरिणति - परमईस - हिन्दुओं के नग्न साधु, नागासम्प्रदाय प्रशस्त राग - के साथु। .पंचम काल - परिवर्सन - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप संसारचक्र में परिभ्रमण। परीषह - कर्म-निर्जरा के लिए समताभाव से भूख-प्यास आदि के कष्ट सहना।। बहूदकइनकी संख्या २२ है। भवनवासी - परोमनाम - इन्द्रियादिक की सहायता से वस्तु को भव्य - जानने वाला ज्ञान। पर्याप्तक- आहार, शरीरादि छहों पर्याप्तियों की भावकर्मपूर्णता को प्राप्त जीव। भावनिक्षेप - पर्याय - द्रव्य की अवस्था विशेष। गुणों का विकार। मावलिंगी - पर्यायवृष्टि - विशेष को ग्रहण करने वाली दृष्टि । विशेषापेक्षा कथन। पदविज्ञान - पल्यउपमा प्रमाण का एक भेद। मतिमान - पंचेन्द्रिय - स्पर्शनादि पाँच इन्द्रिय वाले जीव। पारिणामिक माव -कर्म के निमित्त बिना स्वभावतः होने मदवाले जीव के भाव। पुगल - रूप रस गंध स्पर्शादि गुण वाला भौतिक मनःपर्यय - पदार्थ। पुद्गल परावर्तन -कर्म, नोकर्म परमाणुओं को ग्रहण करने की अपेक्षा संसार-परिभ्रमण का सूचक महायतकालविशेष। मार्गणा - प्रकृति पंथ - नानावरणादि कर्मों का बंध। मिथ्यात्वप्रतिच्छेद - शक्ति के अविभागी अंश। मिथ्यानान - प्रथमोपशम सम्यक्त्व -मोहनीय की सात प्रकृतियों के उपशम मिथ्याचारित्र - से होने वाला सम्यक्त्व। मित्रगुणस्थान - प्रदेश अणु के बराबर स्थान। सूक्ष्म अनन्तानन्त कर्म-परमाणुओं का आत्मा से सम्बन्ध होना। दर्शन, व्रत आदि प्रतिमाओं को धारण करने वाला श्रावक। बिना सहायता के पदार्थों का स्पष्ट ज्ञाता ज्ञान। जिसमें एक भरीर का स्वामी एक प्राणी होता है, ऐसे वृक्ष, फल आदि। सच्चा ज्ञान । यथार्थ ज्ञान। कषाय या इन्द्रियासक्ति रूप आचरण। शुभ राग। कलिकाल। जैनों की मान्यतानुसार भगवान महावीर के निर्वाण के ३ वर्ष महीने बाद से प्रारम्भ होने वाला २१००० वर्ष का काल। हिन्दू संन्यासी का एक भेद। देवों की एक जाति। मुक्त होने की योग्यता या रत्नत्रय की प्राप्ति की योग्यतायुक्त जीव । आत्मा के रागद्वेषादि भाव। वर्तमान पर्यायसंयुक्त पदार्थ-जैसे राज्य करते हुए को ही राजा कहना। बाहर से नग्न तथा अन्तरंग से छठे गुणस्थान वाता मुनि। शरीर और आत्मा का पृथक् अनुभवन। इन्द्रियों और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान। ज्ञान, जाति, कुल, पूजा, बल, ऋद्धि, तप और शरीर का गर्व। द्रव्यादिक की अपेक्षा परकीय मनोगत सरल और गूढ़ रूपी पदार्थ को जानने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान। स्थूल और सूक्ष्म पापों का सर्वथा त्याग। जीवों को खोजने के धर्मविशेष । अतत्व श्रद्धान। मिथ्यादर्शन के साथ होने वाला ज्ञान। मिथ्यात्व के साथ होने वाला चारित्र। जहाँ मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूप मित्र भाव रहते हैं।

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