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परिशिष्ट - ३०
मित्रमोहनीय - वह कर्म जिसके उदय से सम्यक्त्य । वैयावृत्त्य - मुनि, श्रावक की सेवा-शुश्रूषा ।
और मिथ्यात्व रूप मिले हुए भाव शुक्लध्यान - अत्यन्त निर्मल और वीतरागतापूर्ण रहते हैं।
ध्यान। मुँहपट्टी - ढूंढक साधुओं के मुंह पर बाँधने का कपड़ा।
शुद्धोपयोग -
स्वानुभूति । वीतरागविज्ञान । यह सातवें पूढ़ता - धर्म दा सम्यक्पच में दोषजनक
गुणस्थान से ही प्रारम्भ होता है। अविवेकीपन के कार्य।
शुभोपयोग - पण्यानराग। प्रशस्तराग । देवपूजा आदि मूर्तिक - रूपादिमान पदार्थ।
धर्मकार्यों की ओर त्रियोग का लक्ष्य। मूलगुण - आवश्यक रूप से पालन करने के नियम। श्रुतज्ञान - मतिज्ञान से ज्ञात पदार्थ के विशेष को मूलप्रकृतियाँ - कर्म के मूल आठ भेद ।
जानने वाला ज्ञान। मोह -
सांसारिक वस्तुओं ममत्व! - श्वेताम्बर - श्वेत, बलादारी साधुओं का पूजक एक यथाख्यातचारित्र - स्वाभाविक चारित्र, संज्वलन कषाय के
जैन सम्प्रदाय। अभाव में होने वाला चारित्र। सकलचारित्र - महाव्रत । पूर्णचारित्र। योग -
मन-वचन-काय की हलन-चलन । सप्त व्यसन - जुआ, चोरी, मांसभक्षणा, मद्यपान, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र।
वेश्यासे बन, शिकार खेलना, लब्ध्यपर्याप्तक - जिस जीव की एक भी पर्याप्ति
परस्त्रीरमरण- ये सात प्रकार की बुरी नहीं होती।
आदतें। लेश्या - कषायमिश्रित योगों की प्रवृत्ति। जो सम्यक्त्व - तत्त्वश्रद्धान।
आत्मा को कमों से लिप्त करे वह। सम्यग्हान - सम्यग्दृष्टि का ज्ञान। लोक - जिसमें जीवादिक छहों द्रव्य रहते हैं सम्यक्चारित्र - सम्यग्दृष्टि का चारित्र। या देखे जाते हैं।
सम्भूर्छन - बिना गर्भ के उत्पन्न होने वाले लोकमूढ़ता - धर्म समझ कर जलाशयों में स्नान
जीवजन्तु। करना, मिट्टी व पत्थर के ढेर लगाना समयबद्ध - एक समय में बंधने वाले कर्मपरमाणुओं आदि कार्य।
का समूह। व्यन्तर - देवों की जाति विशेष।
समवसरण - तीर्थकर सर्वज्ञ के उपदेश का सभास्थल । वायुकाय - वायु शरीरधारी स्थावर जीव। समिति - प्राणिपीड़ा न होने देने के अभिप्राय से विक्रिया - शरीर को छोटा-बड़ा करने की शक्ति; मूल शरीर
मुनि का सावधान होकर प्रवृत्ति करना। से भित्र शरीर बनाने की शक्ति।
प्रवृत्ति में यत्नाचार। विनय मिथ्यात्व - अविवेकपूर्वक सभी देव-देवियों की समय
काल का सबसे छोटा हिस्सा। समान विनय करना।
सम्यग्दृष्टि - तस्य श्रद्धानी, देवशास्त्र- गुरु का भक्त। विपरीताभिनिवेश -अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि रखना। उल्टा समुघात - मूल शरीर को बिना छोड़े आत्मप्रदेशों अभिप्राय।
का बाहर निकल जाना। विमान - कर्मजन्य भाव।
सर्वघाती - आत्यगुणों का पूर्ण घात करने वाला विसंयोजन - अनन्तानुबन्धी का अन्य कषायरूप
कर्म। परिणमन।
सम्मिानिर्जरा - समय आने पर फल देकर कर्मों का वीतरागविज्ञान - शुद्धोपयोग रूप रागरहित जान।
झड़ जाना। देवकसम्यग्दृष्टि - क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि । सम्यक्त्य प्रकृति सागर - व्यवहारपल्य से असंख्यातगुणा के उदय का वेदन करने वाला
उद्धारपल्य। उद्धारपल्य से सम्यग्दृष्टि।
असंख्यातगुणा अद्धापल्प और दस वैमानिक - कल्पों/स्वर्गों और ग्रैयेयों आदि के
कोडाकोड़ी अद्धापल्यों का एक सागर। ऊर्ध्वलोकवासी देव।
सामान्य -अनेक वस्तुओं में समानता से रहने वाला धर्म।