Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 331
________________ परिशिष्ट -२ ग्रन्थगत पारिभाषिक शब्दकोश अकामनिर्जरा - सहने की हार्दिक इच्अ न होने पर भी | अमव्य - कभी मुक्त न होने वाला जीव। क्षुधादिक से विवश होने पर मन्दकषाय अमूर्तिक - रूप, रस, गन्ध, स्पर्श से रहित पदार्थ । की दशा में फल देकर कमो का स्वयमेव अरिहन्त - पातियाकर्मरहित, ३४ अतिशय सहित झड़ जाना। और १६ दोष रहित परमेष्ठी अगुरुलघु - गोत्र कर्म के अभाव से होने वाला अापत्ति - एक वाक्य से अन्य अर्थ का बोध सिद्धों का एक गुण। होना । जैसे मोय देवदत्त दिन में नहीं अगृहीत -जो वाह्य कारण बिना, स्वभाव से होता है वह। खाता। इस वाक्य से देवदत्त के रात अपातिया कर्म - आत्मगुणों का घात न करने वाला में खाने का बोध होता है। कर्म। अलोक - जहाँ केवल आकाश द्रव्य ही होता है, अपापन - चक्षु को भेड़ कर अन्य इन्द्रियों से अन्य, द्रव्य नहीं होते। होने वाला दर्शन। अदगाइनत्व आय कर्म के अभाव से पैदा होने आराआश्चर्यजनक घटनायें। वाला सिहों का एक गुण। परस्पर में अणुव्रत- पापों का स्थूल त्याग। बिना ही मिले अवगाहन करने की अतिचार - व्रत की अपेक्षा रखते हुए उसका एकदेश शक्ति। मंग इन्द्रियों और मन की सहायता के अषःकरण - जहाँ ऊपर और नीचे के समयवर्ती बिना मूर्तिक पदार्थों को मर्यादापूर्वक जीवों के परिणाम समान हों। जान लेने वाला ज्ञान । इसका दूसरा अनाचार - व्रत का पूर्ण अंग। नाम सीमाबान भी है। अनायतन - अयोग्य स्थान। सम्यक्त्व में दोषजनक अविरति- पत्रों में प्रवृत्ति, व्रतहीनता। एक से चौथे कुदेवादिक की प्रशंसा। गुणस्थान तक में अविरति होती है। अनिवृतिकरण - जहाँ एक समयवर्ती जीवों के परिणामों अशुभोपयोग - कवाय, पाप और व्यसन आदि निन्य की विशुद्धता में कोई भेद न हो; नौवाँ कार्यों की ओर मन-वधन काय का गुणस्थान। लक्ष्य होना। अनुप्रेक्षा - संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप असंही - मनरहित जीव। का बार-बार विचार । अनित्यादि बारह अझमिन्द्र - सोलह स्वर्गों से ऊपर के देव जिनमें भावनाएँ। इन्द्र आदि का भेद नहीं होता। अनुभाग - कर्मों की फलदान शक्ति। आगमद्रव्यनिक्षेप - आगम का जात किन्तु आगम के अनेकान्त- भिन्न-भिन्न धर्मों की अपेक्षा एक वस्तु उपयोग से रहित आत्मा। को विरोषरहित अनेकवर्मात्मक कथन आबाकाकाल - कौ के उदय या उदीरणा होने से करने वाला सिद्धान्त। पहले का समय। अपकर्षण- कों की स्थिति अनुभाग का घट जाना। आर्तध्यान- इष्टवियोग, अलिष्टसंयोग, वेदना और अपर्याप्शक- आहारादि छक पर्याप्तियों में से जिस निशान आदि से चिन्तित रहना। जीव की एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हुई आवली काल का एक परिणाम। असंख्यात हो। समयों की एक आवती मेती है। अपूर्वकरण - महाँ भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम आवश्यक- अवश्य करने योग्य पैनिक कर्तव्य। अपूर्व ही अपूर्व हो; आठवाँ गुणस्थान। । इतरेतरात्रययोष - दो चीजें जहाँ परस्पर आश्रित बताई

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