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परिशिष्ट - ३०३
आठवाँ अधिकार-पृ. २३५ पंक्ति २४
(६) विष्णुकुमार मुनि की कथा उज्जैन में किसी समय राजा श्रीवर्मा राज्य करता था। उसके चार मन्त्री थे। बलि, वृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि। एक बार आचार्य अकम्पन अपने संघके ७०० मुनियों के साथ विहार करते हुए उज्जैन आये। प्रजा की देखा-देखी उक्त चारों मन्त्री और राजा भी मुनियों के दर्शन करने गये। परन्तु आचार्य ने अपने दिव्यज्ञान से राज्याधिकारियों को मिथ्यादृष्टि जानकर समस्त संघको उनसे वार्तालाप करने की मनाही कर दी। मन्त्रियों ने पहुंचकर मुनियों को नमस्कार किया। किन्तु जब उन्होंने नमस्कार के बदले किसीको आशीर्वाद देते तक भी न देखा तो उन्होंने मुनियों की हँसी की और कहा "ये सब बैल हैं, कुछ नहीं जानते।” नगर को लौटते समय उन्हें आहार लेकर आते हुए श्रुतसागर मुनि दीख पड़े। वहाँ उन मुनि से चारों ब्राह्मणों का विवाद हो गया और वे पराजित हो गये। मुनि अपने संघमें पहुंचे और उन्होंने मार्ग का सब वृत्तान्त आचार्य से निवेदन किया। आचार्य ने उन्हें प्रायश्चित्तस्वरूप जहाँ विवाद हुआ था, रात भर वहीं कायोत्सर्ग करने के लिए कहा। मुनि ने वैसा ही किया। वे चारों मन्त्री पराजय के अपमानसे दुःखी होकर रात में संघको मारने चले। किन्तु मार्ग में उन्हीं मुनि को खड़ा देखकर पहले उन्हीं को मारना चाहा। मुनि के वध के लिए जैसे ही उन्होंने तलवार उठाई कि नगर-देवता ने उन्हें उसी प्रकार कील दिया। प्रातः लोगों ने उन्हें उस प्रकार खड़ा देखकर बड़ा धिक्कारा, और राजाने उन्हें गधेपर चढ़ा कर नगर से निकाल दिया। इधर हरितनागपुरका राजा महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्म को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार सहित मुनि हो गया। वे चारों मन्त्री वहाँ से निकलकर हस्तिनागपुर में उसी राजा पद्म के मन्त्री हो गये। उन्होंने राजा पद्म के अजेय शत्रु राजा सिंहबलको किसी प्रकार पकड़ कर पद्म के सामने ला दिया। पद्म इस पर प्रसन्न हो गया और उनसे वर मांगने के लिए कहा। मन्त्रियों ने कहा 'समय आने दीजिए, हम अपना वर मांग लेंगे।'
संयोग से वे ही आचार्य अकम्पन अपने संघके ७०० मुनियों के साथ विहार करते हुए हस्तिनागपुर पहुंचे। उन्हें देखकर मन्त्रियों ने अपने पूर्व अपमान का बदला लेना चाहा। राजा को मुनिमक्त जानकर उन्होंने उस समय अपना वर माँगना उचित समझा और उसे पूरा करने के लिए राजा से सात दिन के लिए राज्य की याचना की। राजा ने उसे स्वीकार कर लिया। राज्य पाकर उन मन्त्रियों ने कायोत्सर्ग से खड़े हुए उन मुनियों को चारों ओर से घेर कर एक यज्ञमण्डप बनवाया और वे यज्ञ करने लगे। यज्ञ में पशुओं की चर्बी और चर्म आदि के जलने से जो धुंआ उठा, उससे मुनियों के गले रुंध गये। याहाँ तक कि अपने कण्टगत प्राण देखकर मुनियों ने संन्यास धारण कर लिया। इधर मिथिलानगरी में आधी रातको आचार्य श्रुतसागर ने श्रवण नक्षत्र को कम्पायमान देखा। अवधि-ज्ञान से मुनियों पर उपसर्ग जानकर उनके मुँह से 'हा' निकल पड़ा। पास बैठे हुए पुष्पधर नाम के एक क्षुल्लकने आचार्य से इसका कारण पूछा। आचार्य ने उपसर्ग का सब वृत्तान्त कह दिया और उसके निवारण का उपाय बताया कि धरणिभूषण पर्वतपर