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परिशिष्ट - ३०२
दसरे दिन जब राजा ने बगीचे में मेंढा नहीं देखा और बहुत खोज करने पर जब उसका पता नहीं चला तब उन्होंने उसका पता लगाने के लिए अपने गुप्तचर नियुक्त किये। एक गुप्तचर राजा के बाग में भी चला गया। वहाँ का बागवान रात को सोते समय अपनी स्त्री से सेटपुत्र के द्वारा मेंढे के मारे जाने का हाल कह रहा था। उसे गुप्तचर ने सुन लिया। उसने महाराज से जाकर सब हाल कह दिया। राजा को यह सुनकर सेठपुत्र पर बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने कोतवाल को बुलाकर आज्ञा की कि पापी सेटपुत्र ने एक तो जीवहिंसा की और दूसरे राजाझा का उल्लंघन किया है, अतः उसे ले जाकर शूली पर चढ़ा दो।
कोतवाल सेठपुत्र को पकड़ कर शूली के स्थान पर ले गया और नौकरों को भेज कर उसने यमपाल चाण्डाल को बुलवाया क्योंकि शूली पर चढ़ाने का काम उसी का था। पर यमपाल ने एक दिन सौषधि ऋद्धिधारी मुनिराज के द्वारा जिनधर्म का पवित्र उपदेश सुन कर यह प्रतिज्ञा ली थी कि "मैं चतुर्दशी के दिन कभी जीवहिंसा नहीं करूंगा।" इसलिए उसने राजसेवकों को आते हुए देखकर अपने व्रत की रक्षा के लिए अपनी स्त्री से कहा - "प्रिये! किसी को मारने के लिए मुझे बुलाने हेतु राजसेवक अप रहे हैं, सो तुम उनसे कह देना कि वे घर में नहीं हैं, दूसरे गाँव गये हुए हैं।" इस प्रकार अपनी पत्नी को कह कर वह अपने घर में ही छिप गया। जब राजसेवक उसके घर पर आये तो चाण्डाल की स्त्री ने अपने स्वामी के बाहर जाने का समाचार कह दिया तो सेवकों ने बड़े खेद के साथ कहा - "हाय, वह बड़ा अभागा है। आज ही तो एक सेठपुत्र को मारने का मौका आया था। यदि वह आज सेठपुत्र को मारता तो उसे उसके सब वस्त्राभूषण प्राप्त होते 1" वस्त्राभूषण का नाम सुनते ही चांडालिनी के मुँह में पानी भर आया। वह अपने लोभ के सामने अपने स्वामी का हानि-लाभ कुछ नहीं सोच सकी। उसने रोने का ढोंग बनाकर और यह कहते हुए कि हाय! वे आज ही गाँव को चले गये, आती हुई लक्ष्मी को उन्होंने पाँव से ठुकरा दिया, हाथ के इशारे से घर के भीतर छिपे हुए अपने स्वामी को बता दिया। यह देख राजसेवकों ने उसे घर से बाहर निकाला। निकलते ही निर्भय होकर उसने कहा - "आज चतुर्दशी है और मुझे आज अहिंसाव्रत है, इसलिए मैं किसी तरह-चाहे मेरे प्राण ही क्यों न जायें, हिंसा नहीं करूंगा।" सेवक उसे राजा के पास ले गये। वहाँ भी वैसा ही कहा। ठीक है - "यस्य धमें सुविश्वासः क्वापि भीतिं न याति सः।"
राजा सेटपुत्र के अपराध के कारण उसपर तो अत्यन्त कुपित थे ही, चाण्डाल की निर्भयपने की बात ने उन्हें और अधिक क्रोधी बना दिया। उन्होंने उसी समय आज्ञा दी कि - "जाओ, इन दोनों को ले जाकर मगरमच्छादि क्रूर जीवों से भरे तालाब में डाल दो।" वहीं किया गया। कोतवाल ने दोनों को लालाब में डलवा दिया। तालाब में डालते ही पापी सेठपुत्र को तो जलजीवों ने खा लिया। रहा यमपाल-सो वह अपने जीवन की कुछ भी परवाह न कर अपने व्रतपालन में निश्चल बना रहा। उसके उच्च भावों और ग्रत के प्रभाव से देवों ने आकर उसकी रक्षा की। उन्होंने धर्मानुराग से तालाब में ही एक सिंहासन पर यमपाल चाण्डाल को बैठाया, उसका सत्कार किया और उसे खूब स्वर्गीय वस्त्राभूषण प्रदान किये। जब राजा प्रजा को यह हाल सुन पड़ा तो उन्होंने भी उस चाण्डाल का हर्षपूर्वक सम्मान किया। व्रतपालन का ऐसा अचिन्त्य प्रभाव देखकर भव्य पुरुषों को उचित है कि वे स्वर्गमोक्ष का सुख देने वाले जिनधर्मोपदिष्ट व्रत-संयमपालन में अपनी बुद्धि लगावें।
- आराधना कथाकोश : प्रथम भाग : २४वी कथा मूल - ब्र. नेमिदत्त, अनु. उदयलाल कासलीवाल