Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 326
________________ परिशिष्ट - ३०० मिथ्यादृष्टि, मो समान और अधर्मी कौन? वे महामुनि मेरे मन्दिर अहारकू आये अर मैं नवधा भक्ति कर आहार न दिया। जो साधुकू देख सन्मान न करै अर भक्ति कर अन्नजल न देय सो मिथ्यादृष्टि है। मैं पापी, पापात्मा, पाप का भाजन, महानिंद्य, मो समान और अज्ञानी कौन? मैं जिनवाणी से विमुख। अब मैं जौलग उनका दर्शन न करूं तौलग मेरे मन का दाह न मिटै।" जब अष्टाहिका आई तो अर्हदत्त सेट ने मथुरा पहुँच कर मुनियों की पूजा-स्तुति की और आहार देकर चित्त को शान्त किया। __-पद्मपुराण, पर्व ६२ अनुवाद पं. दौलतरामजी, पृ. सं. ७१२-७१४ श्रीमहावीरजी प्रकाशन सातौं अधिकार-पृ. १८१ पंक्ति १५ (२) कुत्ते के देव होने की कथा एक बार कुछ विन यज्ञ कर रहे थे, तभी एक कुत्ते ने आकर उनकी हवन-सामग्री जूठी कर दी। उन विप्रों ने उरा कुत्ते को बेरहमी से इतना मारा कि वह मरणासन्न हो गया। संयोग से जीवन्धर कुमार उधर आ निकले। उन्होंने कुत्ते को मरते देख कर उसे नमस्कार मन्त्र सुनाया। मन्त्र के प्रभाव से कुत्ता मर कर यक्षों का इन्द्र सुदर्शन हुआ। अनशिज्ञान से अपने उपकारी का स्मरण कर वह जीवन्धर कुमार के पास आया और बोला कि "हे जीवन्धर! जब भी तुम पर कोई विपत्ति आये तो मेरा स्मरण करना, मैं उसी समय आकर आपकी विपनि दूर कर दूंगा।” यह कह कर वह चला गया। कालान्तर में जब जीवन्धर को मृत्युदण्ड मिलता है तब सुदर्शन यक्षेन्द्र आकर जीवन्धर की रक्षा करते हैं। क्षत्रचूड़ामणि (जीवन्धर चरित्र) ४/१-१४ तथा ५/१४,२४ आदि सातवाँ अधिकार-उ. १८४ तीसरी पंक्ति (३) शिवभूति केवली की कथा शिवभूति नागका निकटभव्य संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगा। वह कुछ पढ़ा-लिखा नहीं था। गुरुमुख ने उसने सुन रखा था कि आत्मा और शरीर इस प्रकार भिन्न है जिस प्रकार तुष और मास भिन्न होते हैं। इसी भावज्ञान के आधार पर वह साधु हुआ था और आठ प्रवचन माताओं (पाँच समिति + तीन गुप्ति) का ज्ञान होने से माधुचर्या का समीचीनतया पालन करता था। परन्तु बुद्धि की मन्दता से वह एक दिन गुरुमुख से सुने हुए इस दृष्टान्त को भी भूल गया कि आत्मा और शरीर तुष-मास की तरह भिन्न हैं। बहुत प्रयत्न करने पर भी वह याद नहीं कर सका । एक दिन आहार को जाते हुए उसने किसी स्त्री को दाल धोते हुए देखा। उसने उस स्त्री से पूछा कि तुम यह क्या कर रही हो? तो स्त्री ने उत्तर दिया - मैं दाल धोकर उसके तुष (छिलके) अलग कर रही हूँ।" इतना सुनते ही उसे 'तुष-मास भिन्न' उदाहरण याद आ गया। वह जाकर ध्यान करने लगा और केवल इतने ही द्रव्य और भावश्रुत के प्रभाव से अन्तर्मुहूर्त में घातिया कर्मों को नष्ट कर अरहन्त केवली बन गया। अनन्तर शेष चार घातिया कर्मों को भी नष्ट कर मोक्ष गया। -- षट्प्राभृत-भावप्राभृत गाथा ५३ की टीका

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