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परिशिष्ट रक्ण् ' ....
परिशिष्ट १ : कथाभाग छठा अधिकार-पृ. १५२ पंक्ति ९
(१) मुनियों को आहारदान न देने की कथा प्रभापुर नगर के राजा श्रीनन्दन और रानी धरणी के सुरमन्यु, श्रीमन्यु, निचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र ये सात पुत्र हुए। प्रीतिंकर स्वामी के केवलज्ञान को देख प्रतिबोध को प्राप्त हो पिता-पुत्र संसार से विरक्त हो गये। पिता श्रीनन्दन तो केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये और ये सातों पुत्र चारणऋद्धि आदि अनेक ऋद्धियों के धारक श्रुतफेवली हो सप्तर्षि के नाम से विहार करने लगे।
__ "सो चातुर्मासिक विषै मथुरा के वनविषे वट के वृक्ष तले आय विराजे । तिनके तप के प्रभावकरि चमरेन्द्र की प्रेरी मरी दूर भई।... मथुरा का समस्त मण्डल सुखरूप भया... । वे महामुनि रसपरित्यागादि तप अर बेला तेला पक्षोपवासादि अनेक तप के धारक, जिन चार महीना चौमासे रहना तो पथुरा के वनविषै, अर चारणऋद्धि के प्रभावतें चाहे जहाँ आहार कर आवे। सो एक निमिष मात्र विष आकाश के मार्ग होय पोदनापुर पारणा कर आये, बहुरि विजापुर कर आवै।... एक दिन वे धीर वीर महाशान्त भाव के धारक जूड़ा प्रमाण घरती देख विहार कर ईर्यासमिति के पालनहारे आहार के समय अयोध्या आये। शुद्ध भिक्षा के लेनहारे, प्रलंबित हैं महाभुजा जिनकी, अर्हदत्त सेठ के घर आय प्राप्त भये। तब अहंद ने विचारी वर्षाकाल विषै मुनि का विहार नाही, ये चौमासा पहिले तो यहाँ आये नाहीं। अर मैं यहाँ जे जे साधु विराजे है, गुफा में, नदी के तीर, वृक्षतले, शून्य स्थानक विष, वन के चैत्यालयनिविषै, जहाँ-जहाँ चौमासा साधु तिष्ठे हैं, वे मैं सर्व बंद। ये तो अब तक देखे नाहीं। ये आचारांग सूत्र की आज्ञा से पराङ्मुख इच्छाबिहारी हैं, वर्षाकाल विषै भी प्रमते फिरै हैं, जिन आज्ञा पराङ्मुख, ज्ञानरहित, निराचारी, आचार्य की आम्नाय से रहित हैं। जिन आज्ञा पालक होय तो वर्षाविषै विहार क्यों करे? सो यह तो उट गया, अर याकै पुत्र की वथू ने अति भक्ति कर प्रासुक आहार दिया। सो मुनि आहार लेय भगवान के चैत्यालय आय जहाँ धुतिभट्टारक विराजते हुते, ये सप्तर्षि ऋद्धि के प्रभाव कर धरती से चार अंगुल अलिप्त चले आये अर चैत्यालयविषै धरती पर पग धरते आये। आचार्य उठ खड़े भये, अति आदर से इनकू नमस्कार किया। अर जे द्युतिभट्टारक के शिष्य हुते तिन सबने नमस्कार किया। बहुरि ये सप्त तो जिनधन्दना करि आकाश के मार्ग मधुरा गये। इनके गये पीछे अर्हदत्त सेट चैत्यालय विषै आया। तब द्युतिभट्टारक ने कही - सप्त महर्षि महायोगीश्वर चारणमुनि यहाँ आये हुते, तुमने हूं वह वंदे हैं? वे महापुरुष महातप के धारक हैं, चार महीने मथुरा निवास किया है, अर चाहै जहाँ आहार ले जाय । आज अयोध्याविषै आहार लिया, चैत्यालय दर्शन कर गये, हमसे धर्मचर्चा करी, वे महातपोधन नगरगामी शुभ चेष्टा के धरणहारे, परम उदार, ते मुनि बन्दिवे योग्य हैं। तब वह श्रावकनिविषै अग्रणी आचार्य के मुख सूं चारणमुनिनि की महिमा सुनकर खेदखिन्न होय पश्चाताप करता भया। धिक्कार मोहि मैं सम्यक्दर्शन रहित वस्तु का स्वरूप न पिछान्या, मैं अत्याचार