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पाँचदा अधिकार-१०३
हूँ' ऐसा मानने का नाम अहंकार है। साक्षीभूत जानने करि तो अहंकार होता नाहीं तो ज्ञानकरि उपज्या कैसे कहिए है? बहुरि अहंकारकरि षोड़श मात्रा कहीं, तिनि विषै पाँच ज्ञानइन्द्रिय कही सो शरीरविषै नेत्रादि आकाररूप द्रव्येन्द्रिय हैं सो तो पृथ्वी आदिवत् जड़ देखिए है अर वर्णादिकके जाननेरूप भावइन्द्रिय है सो ज्ञानरूप है, अहंकारका कहा प्रयोजन है। अहंकार बुद्धिरहित कोऊ काहूको देखै है। तहाँ अहंकार करि निपजना कैसे सम्भबै? बहुरि मन कह्या सो इन्द्रियवत् ही मन है। जाते द्रव्यमन शरीररूप है, भावमन मानरूप है। बहरि पाँच कर्मइन्द्रिय कही सो ए तो शरीर के अंग हैं, मूर्तीक हैं अहंकार अमूर्तीक तैं इनिका उपजना कैसे मानिए। बहुरि कर्मइन्द्रिय पाँच ही तो नाहीं । शरीर के सर्व अंग कार्यकारी हैं। बहुरि वर्णन तो सर्व जीवाश्रित है,मनुष्याश्रित ही तो नाही, ताः सुंडि पूंछ इत्यादि अंग भी कर्मइन्द्रिय है। पाँच ही की संख्या काहेको कहिए है। बहुरि स्पर्शादिक पाँच तन्मात्रा कही सो रूपादि किछू जुदे वस्तु नाहीं, ए तो परमाणूनिस्यों तन्मय गुण हैं। ए जुदे कैसे निपजे? बहुरि अहंकार तो अमूर्तीक जीवका परिणाम है। ताते ए मूर्तीकगुण कैसे निपजे मानिए । बहुरि इनि पाँचनितें अग्नि आदि निपजे कह सो प्रत्यक्ष झूट है। रूपादिक अग्न्यादिककै तो सहभूत गुण-गुणी सम्बन्ध है। कहने मात्र भिन्न है, वस्तुविधै भेद नाहीं। किसी प्रकार कोऊ भिन्न होता भासै नाही, कहने मात्रकरि भेद उपजाइए है। तात रूपादि करि अग्न्यादि निपजे कैसे कहिए। बहुरि कहनेविष भी गुणीविषै गुण हैं, गुणते गुणी निपज्या कैसे मानिए?
___ बहुरि इनिः भिन्न एक पुरुष कहै है सो वाका स्वरूप अवक्तव्य कहि प्रत्युत्तर न करै तो कहा बूझै नाहीं। कैसा है, कहाँ है, कैसे कर्ता हर्ता है सो बताय। जो बतायेगा ताहीमें विचार किए अन्यथापनो भासेगा। ऐसे सांख्यमत करि कल्पित तत्त्व मिथ्या जानने।
बहुरि पुरुषको प्रकृतिते भिन्न जाननेका नाम मोक्षमार्ग कहै है। सो प्रथम तो प्रकृति अर पुरुष कोई है ही नाहीं । बहुरि केवल जानने ही ते तो सिद्धि होती नाहीं। जानिकरि रागादिक मिटाए सिद्धि होय । सो ऐसे जाने किछू रागादिक घटै नाहीं। प्रकृतिका कर्त्तव्य माने, आप अकर्ता है, तब काहेको आप रागादि घटावै। तास यह मोसमार्ग नाहीं है।
बहुरि प्रकृति, पुरुषका जुदा होना मोक्ष कहै है।' सो पम्चीस तत्त्वनिविषै चोईस तत्त्व तो प्रकृति सम्बन्धी कहे, एक पुरुष भिन्न कह्या । सो ए तो जुदे हैं ही अर जीव कोई पदार्थ पच्चीस तत्त्वनिविष कह्या ही नाहीं। अर पुरुष ही को प्रकृति संयोग भए जीव संज्ञा हो है तो पुरुष न्यारे-न्यारे प्रकृति सहित हैं, पीछ साधनकरि कोई पुरुष प्रकृति रहिल हो है, ऐसा सिद्ध भया- एक पुरुष न ठहरया। १. सांख्यकारिका ४४ में कहा है
धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमथस्साद् भवत्यधर्मण।
शानेन चारवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्यः ।। अर्थ- धर्म से ऊर्यलोकों में गति होती है और अथर्म से अधोलोकों में । जान से मोक्ष होता है तथा उसके विपरीत अजान से बन्ध होता है। (सांख्यकारिका २ की तत्त्वकौमुदी में श्रद्धा व भावना (चारित्र) समन्वित ज्ञान से मोक्ष कहा है। इतना विशेष है।)