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सातवा आंधकार-१६३
सो सर्व जीवनिकै दुःख दूर करनेकी वा ज्ञेय जाननेकी वा पूज्य होने की चाहि है। इनिहीके अर्थ मोक्ष की चाह कीनी तो याकै और जीवनिका श्रद्धानतें कहा विशेषता भई।
___ बहुरि याकै ऐसा भी अभिप्राय है- स्वर्गविर्ष सुख है, तिनिः अनन्तगुणे मोक्षविष सुख है। सो इस गुणकारविषै स्वर्ग मोक्ष सुखकी एक जाति जानै है। तहाँ स्वर्गविषै तो विषयादि सामग्रीजनित सुख हो है, ताकी जाति याको भासै है अर मोक्षविषै विषयादि सामग्री है नाहीं, सो वहाँका सुखकी जाति याको भारी तो नाहीं परन्तु स्वगते भी मोक्षको उत्तम महान पुरुष कहै हैं, तातें यह भी उत्तम ही मानै है। जैसे कोऊ गानका स्वरूप न पहिचानै परन्तु सर्व सभाके सराहें, तातें आप भी सराहै हैं । तैसे यहु मोक्षको उत्तम मानै
__ यहाँ वह कहै है- शास्त्रविष भी तो इन्द्रादिकते अनंत गुणा सुख सिद्धनिकै प्ररूप हैं।
ताका उत्तर- जैसे तीर्थंकरके शरीरकी प्रभाको सूर्यप्रभात कोट्यां गुणी कही तहाँ तिनकी एक जाति नाहीं। परन्तु लोकविषै सूर्यप्रभा की महिमा है, तातें भी बहुत महिमा जनावनेको उपमालंकार कीजिए है। तैसे सिद्ध सुखको इन्द्रादिसुखः अनन्त गुणा कह्या। तहाँ तिनकी एक जाति नाहीं। परन्तु लोकविषै इन्द्रादिसुखकी महिमा है, तातें भी बहुत महिमा जनावनेको उपमालंकार कीजिए है।
बहुरि प्रश्न- जो सिद्ध सुख अर इन्द्रादिसुखकी एक जाति वह जानै है, ऐसा निश्चय तुम कैसे किया?
ताका समाधान- जिस धर्मसाधन का फल स्वर्ग मानै है, तिस धर्मसाधन ही का फल मोक्ष माने है। कोई जीव इन्द्रादिपद पावै, कोई मोक्ष पावै, तहाँ तिन दोऊनिकै एक जाति धर्मका फल भया माने। ऐसा तो मानै जो जाकै साधन थोरा हो है सो इन्द्रादिपद पाये है, जार्क सम्पूर्ण साधन होय सो मोक्ष पावै है परन्तु तहाँ धर्मकी जाति एक जान है। सो जो कारणकी एक जाति जाने, ताको कार्यकी भी एक जातिका श्रद्धान अवश्य होय। जाते कारणविशेष भए ही कार्यविशेष हो है। तात्रै हम यह निश्चय किया, वाकै अभिप्राय विषै इन्द्रादिसुख अर सिद्धसुख की एक जातिका श्रद्धान है। बहुरि कर्मनिमित्तः आत्माकै औपाधिक भाव थे, तिनका अभाव होते शुद्ध स्वभावरूप केवल आत्मा आप भया। जैसे परमाणु स्कंधते विछुरे शुद्ध हो हैं, तैसे यहु कर्मादिकते मित्र होय शुद्ध हो है। विशेष इतना-वह दोऊ अवस्थाविषै दुःखी सुखी नाहीं, आत्मा अशुद्ध अवस्थाविषे दुःखी था, अब बाके अभाव होनेर्ते निराकुल लक्षण अनंतसुखकी प्राप्ति भई। बहुरि इन्द्रादिकनिक जो सुख है, सो कषायभावनिकरि आकुलता रूप है। सो वह परमार्थत दुःख ही है। तातै वाकी याकी एक जाति नाहीं । बहुरि स्वर्गसुखका कारण प्रशस्तराग है, मोक्षसुखका कारण वीतराग भाव है, तातै कारण विषै भी विशेष है। सो ऐसा भाव याको मासै नाहीं। तातै मोक्षका भी याकै साँचा श्रद्धान नाहीं है।
या प्रकार याकै साँचा तत्त्व श्रद्धान नाहीं है। इस ही वास्ते समयसारविर्ष' कह्या है- “अभव्यकै
१. सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि ।
धम्म भोगणिमित्तं ण द सो कम्मक्खयणिमित्तं ।। गाथा २७५ ।।