Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 311
________________ नवपा अधिकार-२८५ लक्षणविषै तत्त्वार्थश्रद्धान का गर्मितपनो विशेष बुद्धिमान होय, तिनहीको भासै; तुच्छबुद्धीनिको न भासै ताते तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण को मुख्य किया है। अथया मिथ्यादृष्टी के आभास मात्र ए होय। तहाँ तत्त्वार्थनिका विचार तो शीघ्रपने विपरीताभिनिवेश दूर करने को कारण हो है, अन्य लक्षण शीघ्र कारण नाहीं होय वा विपरीताभिनिवेश का भी कारण होय जाय। तातै यहाँ सर्वप्रकार प्रसिद्ध जानि विपरीताभिनिवेश रहित जीवादि तस्वार्थनिका ऋखान सोही सम्यक्त्व का लक्षण है, ऐसा निर्देश किया। ऐसे लक्षण निर्देश का निरूपण किया। ऐसा लक्षण जिस आत्मा का स्वभावविष पाइए है, सो ही सम्यक्त्वी जानना। सम्यक्त्व के भेद और उनका स्वरूप अब इस सम्यक्त्व के भेद दिखाईए है, तहाँ प्रथम निश्चय व्यवहार का भेद दिखाईए हैविपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम सो तो निश्चय सम्यक्त्व है, जात यहु सत्यार्थ सम्यक्त्व का स्वरूप है। सत्यार्थही का नाम निश्चय है। बहुरि विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान को कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है, जाते कारणविष कार्य का उपचार किया है। सो उपचार ही का नाम व्यवहार है। तहाँ सम्यग्दृष्टी जीवकै देवगुरुधदिक सांचा अचान है सिरही निमिरस बागश्रद्धानविषय विपरीताभिनिवेश का अभाव है। सो यहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान सो तो निश्चय सम्यक्त्व है अर देवगुरु थर्मादिक का श्रद्धान है सो यह व्यवहार सम्यक्त्व है। ऐसे एक ही कालविषै दोऊ सम्यक्त्व पाइए १. आगम में निश्चय सम्यग्दर्शन तथा व्यवहार सम्यग्दर्शन का कथन अनेक दृष्टियों से किया गया है। गुण-गुणी की अभेद दृष्टि से सम्यक्त्व का कथन (सम्यक्त्व ही आत्मा है या आत्मा ही सम्यक्त्व है) निश्चय सम्पग्दर्शन है तथा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान या आत्मा का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है क्योंकि यह भेद दृष्टि का कथन है। निश्चय और व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण इस प्रकार करने पर एक जीय में दोनों सम्यग्दर्शन साथ-साथ रह सकते हैं। इसी तरह विपरीताभिनिवेश रहित आत्म-श्रद्धा निश्चय सम्यक्त्व तथा देवगुरुशास्त्र का श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त्व है ही क्योंकि ये क्रमशः निश्चय (एक द्रव्याश्रित होने से) तथा व्यवहार (भिन्नद्रव्याश्रित कथन होने से) नय के कथन है। परन्तु जहाँ पर सराग सभ्यग्दर्शन को अथवा सविकल्प सम्यग्दर्शन को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है और वीतराग सम्यग्दर्शन को अथवा निर्विकल्प सम्यग्दर्शन को निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है वहाँ पर निश्चय तथा व्यवहार सम्यग्दर्शन दोनों साथ-साथ कदापि नहीं रह सकते । (पं. रतनचन्द मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व पू. ८६९-९०१) क्योंकि चौथे से छठे गुणस्थान मेक बुद्धिपूर्वक राग रूप प्रवृत्ति होती है अतः इन तीन गुणस्थानों में सराग सम्पवत्व कहा। सातवें गुणस्थान से बुद्धिपूर्वक रागसप प्रवृत्ति को अभाव हो जाता है अतः सातयें से वीतराग सम्यक्त्व कहा है। (समयसार गावा ७७ तात्पर्यवृत्ति) यह वीतराग सम्यक्त्व वीतराग चारित्र के साथ ही रहता है तथा इसे ही निश्चय सम्यक्त्व कहा है। वथा - वीतरागसम्पपत्वं निणशुखात्मानुभूतिलमण वीतरागचारित्राविनामूतं तदेव निश्वयसम्यक्त्वमिति (परमात्मप्रकाश २/१७ टीका)। यही बात दृहद्रव्यसंग्रह २२ की टीका, समयसार गा, १३ ता. वृ. तथा समयसार पृष्ठ १५ अजमेर प्रकाशन में लिखी है। अतः उपुर्यक्त लक्षण वाला यह निश्चय सम्पकत्व यानी वीतराग सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान में कदापि नहीं हो सकता । यह तो पाँचवें छठे गुणस्थान में भी नहीं हो सकता। (प. रतनचन्द, मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ. ६२-२२)

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