Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 317
________________ नवमा अधिकार-२६१ काल विषै क्षायिकवत् निर्मल है। याका प्रतिपक्षी कर्म की सत्ता पाईए है, तात अन्तर्मुहूर्त कालमात्र यहु सम्यक्त्व रहै है। पीछे दर्शनमोह का उदय अवै है, ऐसा जानना। ऐसे उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप कह्या। बहुरि जहाँ दर्शनमोह की तीन प्रकृतीनिविषै सम्यक्त्वमोहनी का उदय होय (पाइए है, ऐसी दशा जहाँ होय सो क्षयोपशम है। जाते समलतत्या प्रशान होय, सोनोपान न्याय ।।) अर शेय का उदय न होय, तहाँ क्षयोपशम सम्यक्त्व हो है। सो उपशम सम्यक्त्व का काल पूर्ण भए यहु सम्यक्त्व हो है वा सादि मिथ्यादृष्टी के मिथ्यात्व गुणस्थानत वा मिश्रगुणस्थानते भी याकी प्राप्ति हो है। क्षयोपशम कहा? सो कहिए है__दर्शनमोह की तीन प्रकृतीनिविष जो मिथ्यात्व का अनुभाग है ताकै अनन्तर्वे भाग मिश्रमोहनी का है। ताकै अनन्तवें भाग सम्यक्त्यमोहनी का है। सो इनिविष सम्यक्त्वमोहनी प्रकृति देशघाती है। याका उदय होते भी सम्यक्त्व का घात न होय। किंचित् मलीनता करे, मूलघात न कर सके; ताहीका नाम देशघाती है। सो जहाँ मिथ्यात्व वा मिश्रमिथ्यात्वका वर्तमानकालविष उदय आवने योग्य निषेक तिनका उदय हुए बिना ही निर्जरा हो है सो तो मय जानना और इनिही का आगामीकालविष उदय आवने योग्य निषेकनिकी सत्ता पाइए सो ही उपशम है और सम्यक्त्यमोहनी का उदय पाइए है, ऐसी दशा जहाँ होय सो क्षयोपशम है, नाते समलतत्त्वार्थ श्रद्धान होय सो क्षयोपशम सम्यक्त्व है। यहाँ मल लाग है, ताका तारतम्य स्वरूप तो केवली जाने है, उदाहरण दिखावने अर्थि चल-मलिन-अगाढ़पना कह्या है। तहाँ व्यवहार मात्र देवादिक की प्रतीति तो होय परन्तु अरहन्तदेवादिविषै यहु मेरा है, यहु अन्यका है, इत्यादि भाव सो चलपना है। शंकादि मल लागै सो मलिनपना है। यहु शांतिनाथ शांति का कर्ता है इत्यादि भाव सो अगादपना है। सो ऐसे उदाहरण व्यवहारमात्र दिखाए परन्तु नियमरूप नाहीं। क्षयोपशम सम्यक्त्य विष जो नियमरूप कोई मल लामै है सो केवली जाने है। इतना जानना-याकै तत्त्वार्थश्रद्धानविषै कोई प्रकार करि समलपनो हो है तात यह सम्यक्त्व निर्मल नाहीं है। इस क्षयोपशम सम्यक्त्वका एक ही प्रकार है। याविषे किछू भेद नाहीं है। इतना विशेष है- जो क्षायिक सम्यक्त्व को सन्मुख होते अन्तर्मुहूर्त्तकाल मात्र जहाँ निय्यात्व की प्रकृति का क्षय करे है, तहाँ दोय ही प्रकृतीनिकी सत्ता रहै है । बहुरि पीछे मित्रमोहनी का भी क्षय करै है। तहाँ सम्यक्त्वमोहनी की ही सता रहे है। पीछे सम्यक्त्व मोहनीय की कांडकघातादि क्रिया न करै है। तहाँ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नाम पावै है, ऐसा जानना। बहुरि इस क्षयोपशमसम्यक्त्व ही का नाम वेदकसम्यक्त्व है। जहाँ मिथ्यात्वमिश्रमोहनी की मुख्यता करि कहिए, तहाँ क्षयोपशम नाम पाये है। सम्यक्त्व मोहनी की मुख्याकरि कहिए, तहाँ वेदक नाम पावै है। सो कहने मात्र दोय नाम हैं, स्वरूपविवे भेद है नाहीं। बहुरि यहु क्षयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थादि सप्तमगुणस्थान पर्यन्त पाइए है, ऐसे क्षयोपशम सम्यक्त्व का स्वरूप कहा। बहुरि तीनों प्रकृतीनि के सर्वथा सर्व निषेकनिका नाश भए अत्यन्त निर्मल तत्त्वार्थश्रद्धान होय सो मायिक सम्यक्त्व है। सो चतुर्थादि चार गुणस्थाननियिषे कहीं क्षयोपशम सम्यग्दृष्टी के याकी प्राप्ति हो है। १, अर्थात् सर्वधाती रूप से उदय न होकर सम्यक्त्व के देशघाती स्पर्षक रूप से उदय में आना ।

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