Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 320
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६४ सरिसाणि। त कुदो जब महापं मारिनामामामो तं बह-विच्छतुक्कस्सट्ठाण चरिमफद्दयादो सेलसमाणादो अणंताणुबंधी-लोभचरिमाणु-भागफदयमणतगुणहीणं। लोभचरिमाणुभागफदयादो मायाए चरिमाणुभागफदर्य विसेसहीणं । तत्तो कोधचरिमफद्वयं विसेसहीणं । कोषचरिमफदयादो माणचरिमफदयं विसेसहीणं। अणंताणुबंधिमाणचरिमफद्दयादो लोभसंजलणचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं तत्तो तस्सेव मायाचरिमफदयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव कोषचरिमफदर्य विसेसहीणं । तदो तस्सेव माण-चरिमफद्दयं विसेसहीणं । माणसंजलणचरिमफद्दयावो पच्चक्खाणायरण लोभ चरिमफद्दयं अणंतगुणहीणं। तदो तस्सेव मायाचरिमफदर्य विसेसहीणं, तदो तस्सेव कोधचरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेय माणचरिमफदयं विसेसहीणं। पच्चक्खाणावरणमाणचरिमफद्दयादो अपच्चक्खाणावरण लोभचरिमफद्दयमणंतगुणहीणं । तदो तस्सैव माया-चरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव-कोषचरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव माणचरिमफदयं विसेसहीणं । {जयथवल) अर्थ-चारों कषायों के अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है कि मिथ्यात्वादि के अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं ? समाधान-महाबन्ध नामक सूत्रग्रंथ {यानी श्री महाधवला से यह जाना जाता है। यथा-मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्थान शैल समान अन्ति'. स्पर्धक से अनन्तानुबन्धी लोभ का अन्तिम अनुभाग स्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। लोभ के अन्तिम प्रभाग स्पर्धक से माया का अन्तिम अनुभाग स्पर्धक विशेषहीन है। उससे क्रोध का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे मान का अन्तिम स्पर्धक विशेष हीन है। अनन्तानुबन्धी मान के अन्तिम स्पर्धक से संचलन लोभ का अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणाहीन है। उससे उसी की माया का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसी के क्रोध का अन्तिम स्पर्थक विशेषहीन है। उससे उसी के मानका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। संज्वलन मान के अन्तिम स्पर्धक से प्रत्याख्यानावरण लोभ का अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे उसी की माया का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है, उससे उसी के क्रोध का अन्तिम स्पर्थक विशेष हीन है। उससे उसी के मान का अन्तिम स्पर्थक विशेषहीन है। प्रत्याख्यानाकरण मान के अन्तिम स्पर्धक से अप्रत्याख्यानावरण लोभ का अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणाहीन है। उससे उसी की माया का अन्तिम स्पर्थक विशेष हीन है। उससे उसी के क्रोध का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसी के मान का अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। इस प्रकार जयधवला जी व महाधवलजी से चारों कषायों के अन्तिम स्पर्धकों की असमानता सिद्ध है। (देखें-जैन गजट दि. ७.७.७३ ई., सि. शिरोमणि ब्र. रतनचन्द मुख्तार • इतना विशेष है- जो अनन्तानुबंधी के साथ जैसा तीव्र उदय अप्रत्याख्यानादिक का होय, तैसा ताको गए न होय। ऐसे ही अप्रत्याख्यान की साथि जैसा प्रत्याख्यान संचलन का उदय होय, तैसा ताको गए न

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